अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप
फ़िलिस्तीन को फ़्रांस और ब्रिटेन के बाद अब कनाडा ने भी मान्यता देने की बात कही है. यह कूटनीति अमेरिका (USA) के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के टैरिफ़ वार को काउंटर करने के लिए चली गई है. ट्रंप ने अपने टैरिफ़ वार की मार से शुरू में तो सबको सांसत में डाला परंतु धीरे-धीरे हर देश ने अपने लिए कोई न कोई सहारा तलाश लिया. अमेरिका के सबसे निकट का पड़ोसी कनाडा भी अमेरिका की जकड़ से बाहर आने को बेचैन है.
अमेरिका ने अपने उत्तर और दक्षिण के पड़ोसी कनाडा और मैक्सिको को भी टैरिफ़ से मुक्ति नहीं दी. उन पर पहले 25 फिर 35 प्रतिशत टैरिफ़ बढ़ाया गया. ये दोनों देश USA के इस तरफ़ और उस तरफ़ बसे हुए हैं. वह इन्हें जब चाहता है तब धमका लेता रहा है. लेकिन कनाडा के नये प्रधानमंत्री मार्क कार्नी ने फ़िलिस्तीन को मान्यता देने की बात कह कर ट्रंप को उकसा दिया है.
टू-नेशन सॉल्यूशन का सिद्धांत
कार्नी का यह बयान USA-इज़राइल संबंधों पर ज़बरदस्त प्रहार है. अमेरिका कार्नी के इस बयान से बिलबिला गया है क्योंकि अमेरिकी इकोनोमी में यहूदी समुदाय के लोगों की अनदेखी नहीं की जा सकती. सबको पता है कि यहूदियों ने फ़िलिस्तीन में घुसकर इज़राइल बनाया हुआ है. इसलिए अमेरिका उसके जन्म के समय से ही इज़राइल को सपोर्ट करता रहा है. ऐसे में अमेरिकी लॉबी के देशों (G-7) का फ़िलिस्तीन के हक़ में जाना USA को भारी पड़ेगा. हालांकि कार्नी ने यह अवश्य कहा है, कि कनाडा शुरू से ही दो राष्ट्र के मध्य समझौते और सह अस्तित्त्व का समर्थक रहा है. वह चाहता है कि इज़राइल और फ़िलिस्तीन शांति एवं सुरक्षा के साथ सह-अस्तित्त्व बनाए रखें. गाजा में मानवीय मूल्यों के संकट को देखते हुए कनाडा फ़िलिस्तीन को मान्यता देने के लिए राज़ी है.
ट्रंप ने लिखा, ओह कनाडा!
अपने इस बयान में कार्नी ने फ़िलिस्तीन प्राधिकरण के समक्ष कुछ शर्तें रख कर यह भी स्पष्ट कर दिया है कि उनका मंतव्य ट्रंप की धमकी को काउंटर करना है. कार्नी अपनी चाल में सफल रहे. कुछ ही देर में डोनाल्ड ट्रंप ने सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म ट्रुथ सोशल में लिखा, कनाडा फ़िलिस्तीन के स्टेटहुड का समर्थन कर रहा है. ऐसे में कनाडा से ट्रेड संभव नहीं है. उन्होंने कार्नी के बयान पर अफ़सोस जताया है. इसके पहले मैक्सिको ने भी अपने टमाटर अमेरिका को भेजने बंद कर दिए थे. नतीजा यह हुआ कि USA में कुछ सेंट मिलने वाला टमाटर अब डॉलर के भाव बिक रहा है. मैक्सिको अपने टमाटर कनाडा को भेजने लगा है. अमेरिका को सब्ज़ियों की आपूर्ति मैक्सिको करता रहा है. ख़ासकर टमाटर तो मैक्सिको ही भेजता है. लेकिन अब लाल टमाटर ट्रंप का चेहरा लाल कर रहे हैं.
डोनाल्ड ट्रंप की विचित्रताएं
ट्रंप ने अपनी विचित्र कूटनीति से पूरी दुनिया को हैरान और आवाक कर रखा है. उनके टैरिफ़ वार की जद में 115 देश हैं. इनमें कनाडा भी है. जिसे अमेरिका अपना छोटा भाई कहता रहा है. लेकिन ट्रंप की सनक है कि वे कनाडा को अपना 51वां राज्य बनाएंगे. डोनाल्ड ट्रंप समझ नहीं पा रहे कि नॉर्थ अमेरिका का यह सबसे विशाल देश एरिया के मामले में अमेरिका से डेढ़ लाख वर्ग किमी बड़ा है. यह ज़रूर है कि उसकी आबादी अमेरिका की तुलना में बहुत कम है. कनाडा का एक बड़ा भू-भाग सदैव बर्फ़ से ढका रहता है. इसलिए इसका एक बड़ा हिस्सा खाली पड़ा है. यहां पेय जल तो बहुत है किंतु खाद्य पदार्थों के मामले में इसे USA और मैक्सिको पर निर्भर रहना पड़ता है. ऊर्जा को छोड़कर शेष जीवनोपयोगी वस्तुएं इसे अमेरिका से मंगानी पड़ती हैं. किंतु ट्रंप ने यहां भी 35 पर्सेंट टैरिफ़ लाद दिया.
फ़िलिस्तीन की ज़मीन पर यहूदी
अमेरिका द्वारा छेड़े गए इस कोल्ड वार के नाज़ुक मौक़े पर पश्चिम एशिया भी एक हथियार बन रहा है. ख़ासकर फ़िलिस्तीन जैसे अरब देश. 1917 के बाल्फ़ोर घोषणापत्र में यहूदियों के लिए एक स्वतंत्र राष्ट्र फ़िलिस्तीन में बनाने की मांग की गई थी. USA ने इसका समर्थन किया था. किंतु पहले के बाद दूसरे विश्व युद्ध तक मामला टलता रहा. इस बीच हिटलर ने यहूदियों को गैस चेम्बर में भरकर मार दिया. बचे-खुचे यहूदी अब अपने लिए देश की मांग करने लगे. 1945 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रूज़वेल्ट का मानना था कि यहूदी देश इज़राइल की स्थापना के पूर्व अरबों और यहूदियों दोनों से बात की जाए. लेकिन अरब ज़मीन पर उस समय ब्रिटिश इंडिया क़ानून चलता था. ब्रिटिशर्स के पास इस आशय का एक शासनादेश भी था. इसलिए ब्रिटेन से भी बात ज़रूरी थी.
मई 1948 में बना इज़राइल
रूज़वेल्ट के बाद जब ट्रूमैन राष्ट्रपति हुए तो 1946 में उन्होंने एक कैबिनेट मिशन अपने सहायक विदेश मंत्री डॉ. हेनरी एफ ग्रेडी की अध्यक्षता में बनाया. इस मिशन के विशेषज्ञों ने ब्रिटेन से भी बात की और उसकी सहमति मिलने के बाद मई 1946 में एक लाख यहूदियों को यहां बसाने की घोषणा की. अगले वर्ष संयुक्त राष्ट्र के एक आयोग ने फ़िलिस्तीन को एक यहूदी और एक अरब राज्य में विभाजन की सिफ़ारिश की. 14 मई 1948 में जब ब्रिटिशर्स के शासनादेश की अवधि समाप्त होने वाली थी, ग्रेट ब्रिटेन ने फ़िलिस्तीन के विभाजन की अनुमति दे दी. फ़िलिस्तीन का विभाजन हो गया. यहूदियों के क़ब्ज़े वाला क्षेत्र इज़राइल कहलाया और अरबों की ज़मीन फ़िलिस्तीन. विभाजन के बाद येरूशलम के आसपास का धार्मिक महत्त्व वाला क्षेत्र संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रशासित अंतर्राष्ट्रीय नियंत्रण के तहत कर दिया गया.
यहूदियों ने उपनिवेशों के बाज़ार में अकूत धन अर्जित किया
यहूदी अरब में पहले भी रहते थे. येरूशलम तो यहूदी, ईसाइयों और मुस्लिम तीनों के लिए पवित्र धार्मिक स्थल है. यहूदियों की अधिकतर बसावट अरब के इस क्षेत्र में थी. किंतु पहले ईसाइयों और बाद में इस्लाम के जोर ने उन्हें दर-बदर कर दिया. यहूदियों ने 14वीं और 15वीं शताब्दी के दौरान यूरोप के खोजी अभियान में खूब पैसा लगाया. इसलिए अमेरिका, अफ़्रीका और भारत में भी वे व्यापार करने लगे. स्वतंत्र संयुक्त राज्य अमेरिका (USA) के निर्माण में उनकी व्यापार की इच्छा बलवती थी. इसलिए USA यहूदियों को पश्चिम एशिया में एक स्वतंत्र देश दिलाने के प्रति अधिक कटिबद्ध था. यह अमेरिका का ही प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष सपोर्ट था जिसके चलते इज़राइल धीरे-धीरे फ़िलिस्तीन पर प्रभावी होता गया. उसने वेस्ट बैंक के कई क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा कर लिया.
नई वैश्विक व्यवस्था में दादा कोई नहीं
अमेरिका पश्चिम एशिया पर इज़राइल के मार्फ़त अपना दबदबा बनाता था और मध्य पूर्व तथा दक्षिण एशिया में पाकिस्तान के मार्फ़त. मगर इज़राइल के पीछे और कोई देश नहीं आया जबकि पाकिस्तान अपनी भौगोलिक बनावट के चलते सोवियत संघ का भी प्रिय रहा. सोवियत संघ बिखरने के बाद रूस भी उसकी अहमियत को समझता है और नया उभर रहा चीन भी. अमेरिका तो उसे छोड़ेगा नहीं. इसके अलावा पाकिस्तान का एलीट क्लास भी करप्ट है. उसे पैसे देकर ख़रीद जा सकता है. यही कारण है कि USA पाकिस्तान और इज़राइल की पीठ पर हाथ रखना कभी नहीं छोड़ेगा. इस बात को G-7 के उन देशों ने पकड़ लिया, जो व्यापार में उतने ही माहिर हैं, जितना कि ब्रिटेन. फ़्रांस के राष्ट्रपति ने जैसे ही फ़िलिस्तीन को मान्यता देने की बात कही वैसे ही सउदी अरब खिल उठा.
स्टार्मर भी पीछे नहीं
उधर फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रॉन ने फ़िलिस्तीन को राष्ट्र का दरजा दिया तत्काल ब्रिटेन के भी कान खड़े हुए. लगभग 200 वर्ष तक पूरे विश्व व्यापार को उसने कंट्रोल किया और बहुत सारे देशों पर राज भी. वह समझ गया इस बहाने इमैनुएल मैक्रॉन ने फ़्रांस के हथियारों की ख़रीद के लिए दरवाज़े खोल लिए हैं, इसलिए ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कीर स्टार्मर ने भी फ़िलिस्तीन को मान्यता देने की घोषणा कर दी. अब इसी रास्ते पर कनाडा के प्रधानमंत्री मार्क कार्नी भी आ गए हैं. यह सब हो पाया अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कारण. उन्होंने अमेरिका के शत्रुओं को बर्बाद करने की तो ठानी ही, USA के मित्र देशों को भी अमेरिका से दूर रहने का डंडा चलाया. योरोपीय यूनियन (EU), ब्रिटेन और कनाडा जैसे देशों को भी अपने से दूर कर लिया.
G7 से भी दुश्मनी
अमेरिका की इस लड़ाई के दायरे में G7 के देश भी आ गए. ये देश संपन्न तो हैं ही हथियार निर्माता भी हैं. रूस और चीन तो यूं भी उससे कोई मित्रता नहीं रखेंगे ऐसे में EU और ब्रिटेन व कनाडा जैसे देश उसके लिए सहायक हो सकते थे. मगर डोनाल्ड ट्रंप की सनक ने सबको दूर कर दिया. यही कारण है कि ट्रंप टैरिफ़ वार की तारीख़ें बदल रहे हैं. अब यह भी लगने लगा है कि उनका टैरिफ़ वार गीदड़ भभकी है. यह USA की सबसे बड़ी हार है, कि उसे एक ऐसा राष्ट्रपति मिला है जो वहां के लोकतांत्रिक मूल्यों को ध्वस्त तो कर ही रहा है अमेरिका कि प्रगति में भी बाधक है.
फ़िलिस्तीन के रास्ते में कांटे
इन देशों ने फ़िलिस्तीन को मान्यता देने की बात तो कही है पर शर्तें भी रखी हैं. पहली शर्त है गाजा पट्टी से हमास जैसे संगठनों को बाहर करने की. 2006 से फ़िलिस्तीन में चुनाव नहीं हुए हैं. इसलिए हर हाल में 2026 तक चुनाव कराने पर भी जोर दिया है. इन चुनावों में हमास को मैदान में न उतरने की चेतावनी दी है. मालूम हो कि हमास के हथियारों के चलते ही इज़राइल दब जाता है. वेस्ट बैंक के कई कई इलाक़ों पर इज़राइल का क़ब्ज़ा है, जो उसने UN के प्रस्तावों का उल्लंघन कर किया. वेस्ट बैंक पर फ़तेह का शासन है, जो उदार है. ईरान के हथियारों की आपूर्ति हमास को होती है. अड़चनें और भी हैं, फ़िलिस्तीन की कोई स्पष्ट सीमा रेखा नहीं है न कोई राजधानी. इसीलिए संयुक्त राष्ट्र ने उसे सदस्य तो बनाया है परंतु उसे वोट करने का अधिकार नहीं है. लेकिन G7 देशों की मान्यता मिलने से उसकी राह आसान हो सकती है.