31 जुलाई 1940 को पेंटनविले जेल में ऊधम सिंह ने हंसते हुए फांसी का फंदा चूमा था.
जनरल डायर की अगुवाई में ब्रिटिश सत्ता की बर्बरता के शिकार निर्दोष भारतीयों की लाशों के बीच लहू से तर जालियांवाला बाग की मिट्टी को मुठ्ठी में कसे उस अनाथ नौजवान ने प्रतिशोध की कसम खाई थी. फिर इसे सच में बदला. हालांकि बीच में 21 साल का अंतराल था. लेकिन इस दौर के हर दिन-रात इस कसम को पूरा करने की याद उसे बेचैन किए रही. 13 मार्च 1940 को लंदन में फ्रांसिस ओ डायर पर गोलियां बरसाकर उसने हिसाब चुकता किया. इस पराक्रम के लिए हंसते-हंसते फांसी का फंदा चूमा. देश की आजादी के लिए कुर्बान हो जाने वाला वो नौजवान अमर शहीद ऊधम सिंह था.
दिसम्बर 1899 को पंजाब के संगरुर जिले के सुनाम गांव में जन्मे ऊधम सिंह के सिर से पिता तेहाल सिंह का साया बचपन में ही उठ गया था. मां पहले ही गुजर चुकी थीं. ऊधम और भाई मुक्ता सिंह की शरण स्थली एक अनाथालय बना. असलियत में ऊधम को पिता ने शेर सिंह नाम दिया था. लेकिन अनाथालय में शेर सिंह का नाम ऊधम सिंह और मुक्ता सिंह का नाम साधू सिंह लिखा गया. बड़े भाई साधू सिंह की 1917 में मृत्यु हो गई. ऊधम अब बिल्कुल अकेले थे.
प्रदर्शन को कुचलने का हुक्म
अप्रैल 1919 में कांग्रेस की अपील पर रौलट एक्ट के खिलाफ़ देशव्यापी प्रदर्शनों का सिलसिला जारी था. पंजाब में इससे जुड़े प्रदर्शनों में जगह-जगह पुलिस और प्रदर्शनकारियों में टकराव चल रहा था. वहां के लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल फ्रैंसिस ओ डायर का इन प्रदर्शनों को सख्ती से कुचलने का हुक्म था. डायर ने कानून व्यवस्था दुरुस्त रखने के लिए कमान ब्रिगेडियर जनरल रेनाल्ड एडवर्ड हैरी डायर को सौंप दी थी .
इसके बाद हैरी डायर ने दमनचक्र तेज कर दिया. देशभक्त आंदोलनकारी झुकने-डरने को तैयार नहीं थे. सरकारी जुल्म-ज्यादती के खिलाफ़ 13 अप्रेल 1919 को अमृतसर के जंलियावाला बाग में सभा आयोजित की गईं. इसमें हजारों लोग मौजूद थे. खालसा अनाथालय की ओर से कुछ युवकों को सभा में पानी पिलाने की जिम्मेदारी सौंपी गई. युवकों की टीम में 20 साल के ऊधम सिंह शामिल थे.

13 अप्रैल, 1919 की तारीख इतिहास में जलियांवाला बाग के नरसंहार के तौर पर दर्ज है.
बदले की वो कसम
जोश भरी भीड़ के लिहाज से जालियांवाला बाग का मैदान छोटा था. प्रवेश और निकास का एक ही द्वार था. सरकार के विरुद्ध बढ़ते रोष के बीच प्रशासन-पुलिस प्रदर्शनकारियों को सबक सिखाने की तैयारी में थे. उस दिन ब्रिगेडियर जनरल हैरी डायर ने हैवानियत की सारी हदें पार कर दीं थीं. एक शांत सभा पर अंधाधुंध गोलियों की बरसात की गई. ज्यादा से ज्यादा लोगों को मारकर सिर्फ पंजाब नहीं बल्कि समूचे देश में ब्रिटिश गुलामी के खिलाफ सड़कों पर उतर रही भीड़ को भयभीत करने लिए यह नरसंहार किया गया था.
इसमें मरने और घायल होने वालों की गिनती नहीं हो सकी थी. इस कांड की खबर से समूचे देश में गम और गुस्से की लहर दौड़ गई थी. इसने उस नौजवान ऊधम सिंह की जिंदगी का मकसद बदल दिया था, जो इस सभा में एक वालेंटियर के तौर पर लोगों को पानी पिला रहा था और जो इस खौफनाक मंजर का चश्मदीद था. वहां की चीख – पुकार, बचाव के लिए बाग के कुएं में कूदकर जान गंवाने वाले या फिर गोलियां खाकर गिरती लाशों के दृश्य ऊधम के दिल-दिमाग में हमेशा के लिए अक्स हो गए. वो नौजवान जिसकी जिंदगी अनाथालय में गुजर रही थी, उसने वहां की खून से तर मिट्टी को मुठ्ठी में ले माथे से लगाया था और वहीं डायर और अंग्रेजों से प्रतिशोध की सौगंध ली थी.
संघर्ष की राह
ऊधम को अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष के लिए रास्ते की तलाश थी. 1920 में वे पूर्वी अफ्रीका पहुंचे. जल्दी ही उन्होंने अमेरिका का रुख किया. सेन फ्रांसिस्को में गदर पार्टी से जुड़े. प्रवासी भारतीयों का यह सैन्य संगठन जिसमें बड़ी संख्या में सिख क्रांतिकारी शामिल थे, विदेश की धरती से भारत को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने की मुहिम छेड़े हुए था. अमेरिका के तमाम स्थानों में घूमते ऊधम सिंह अगले कुछ वर्षों तक वहां भारत की आजादी के पक्ष में जनभावनाएं जगाने की कोशिशों में जुटे रहे.
वे मानते थे कि भारत में आजादी के संघर्ष को प्रभावी बनाने के लिए हिंदू, मुसलमानों और सिखों को एकजुट होना होगा. इस एकता के प्रतीकस्वरूप उन्होंने बांह पर अपना नाम “आजाद मुहम्मद सिंह” अंकित करा रखा था.

13 मार्च 2018 को जालियांवाला बाग़ में ऊधम सिंह की प्रतिमा स्थापित की गई.
स्वदेश पहुंचते ही लाहौर जेल
विदेश में रहते हुए भारत की आजादी की कोशिशें अब उन्हें नाकाफी लगने लगी थीं. 1927 में उनकी भारत वापसी हुई. गदर पार्टी से जुड़ाव, हथियारों और प्रतिबंधित साहित्य की बरामदगी के आरोपों में उसी साल उन्हें लाहौर जेल भेज दिया गया. यहीं उनकी सरदार भगत सिंह से भेंट हुई. भगत सिंह ने उन्हें काफी प्रभावित किया.
इस भेंट ने ऊधम के संकल्पों को और ताकत दी. उन्होंने जालियांवाला बाग नरसंहार के मौके पर ली सौगंध को भगत सिंह के सामने दोहराया. चार साल बाद 1931 में ऊधम सिंह की जब रिहाई हुई, उसके पहले सरदार भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू की फांसी हो चुकी थी. रिहाई बाद भी ऊधम सिंह पर पुलिस और खुफिया एजेंसियों की कड़ी निगरानी थी. भारत में रुकने पर उनकी फिर गिरफ्तारी तय थी. जाली पासपोर्ट के जरिए पहले वे जर्मनी और फिर 1933 में लन्दन पहुंचे.
सोशलिस्ट ग्रुप से जुड़ वे पोलैंड, हॉलैंड,ऑस्ट्रिया और सोवियत रूस में भी रहे. रोजी – रोटी के लिए बढई, पेंटर और मोटर मेकेनिक जैसे काम किये. शायद इतना ही काफी नही था. बहुमुखी प्रतिभा थी उनमें. दो फिल्मों एलिफैंट ब्वाय (1937 ) और द फोर फ़ेदर्स (1939) में उन्होंने अतिरिक्त कलाकार की भूमिका भी निभाई .
बलिदान के लिए दी गिरफ्तारी
ऊधम सिंह के लाहौर जेल में बंदी रहने के दौरान ब्रिगेडियर जनरल रेनाल्ड एडवर्ड हैरी डायर की मौत हो चुकी थी. जालियांवाला बाग नरसंहार के लिए लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकेल फ्रैंसिस ओ डायर बराबर का दोषी था. उसी ने रेनाल्ड डायर को बेकसूर साबित करने के लिए सभा की भीड़ को गोली चलाने के लिए मजबूर करना बताया था. इस समय तक ऊधम सिंह लंदन में अपने संपर्क – संबंध मजबूत कर चुके थे. 21 साल पुरानी उनकी सौगंध पूरी करने का समय आ चुका था.
13 मार्च 1940 की शाम को लन्दन के कॉक्सटन हाल में रॉयल सेंट्रल एशियन सोसाइटी और ईस्ट इंडिया एसोसिएशन की बैठक चल रही थी. मंच पर माइकेल फ्रैंसिस ओ डायर भी मौजूद थे. कुछ देर पहले ही सूट में सजे ऊधम सिंह वहां पहुंच चुके थे. भाषण के लिए खड़े डायर पर ऊधम ने रिवॉल्वर तानी. तीन-चार फायर किए. डायर ने मौके पर ही दम तोड़ दिया. ऊधम सिंह आसानी से भाग सकते थे. लेकिन इस एक्शन के जरिए वे दुनिया को जो संदेश देना चाहते थे, इसके लिए उन्हें अपना बलिदान जरूरी लगता था. उन्होंने शांति के साथ खुद को पुलिस के हवाले कर दिया.
मुकदमा बना ब्रिटेन को बेपर्दा करने का जरिया
ब्रिटिश सरकार की पाबंदियों के बावजूद डायर की मौत और उसकी वजहें दुनिया के तमाम देशों और वहां के अखबारों में चर्चा का विषय बनीं. मुकदमे की कार्यवाही को भी ऊधम सिंह ने अपने बचाव नहीं बल्कि ब्रिटिश सत्ता के जुल्मों के पर्दाफाश का जरिया बनाया. जज उन्हें रोकता रहा लेकिन मौत से बेखौफ ऊधम बुलंद आवाज में ब्रिटिश हुकूमत को बेपर्दा करते रहे. जज एटकिंसन ने सवाल किया कानून के मुताबिक तुम्हे सजा क्यों न दी जाए? बचाव में कुछ कहना चाहते हो?
बेखौफ ऊधम का जवाब था, “मेरे लिए फांसी की सजा का कोई मतलब नही. फांसी कुछ भी नही. मैं मरने और ब्रिटिश सत्ता की यातनाओं से नही डरता. मैं अपने देश की आजादी के लिए जान दूंगा,इसका मुझे गर्व है. मुझे भरोसा है कि मेरे बाद मेरे हजारों देशवासी तुम कुत्तों से देश को आजाद कराने के लिए आगे आएंगे. मैं इंग्लिश ज्यूरी और कोर्ट के सामने खड़ा हूं. तुम अंग्रेज भारत जाते हो. वापसी में हाउस ऑफ कॉमन्स में जगह पाते हो. भारतीय इंग्लैंड आते हैं और फांसी पर चढ़ाए जाते हैं. वो समय आएगा जब ब्रिटिश कुत्ते भारत से भगाए जाएंगे और उसका साम्राज्य खत्म हो जाएगा. तुम्हारे कथित लोकतंत्र और ईसाइयत के झंडे के नीचे भारत की गलियों-सड़कों पर मशीनगनों से हजारों महिलाओं-बच्चों की जान ली जा रही है. अपना इतिहास पढ़ो. जरा भी मानवीय गरिमा हो तो शर्म से डूब मरो. खुद को सभ्यता का संरक्षक बताने वालों तुम लोगों ने जैसी बर्बरता की और खून बहाया है,वो तुम्हारे घटिया होने का सबूत है.
हंसते हुए फांसी का फंदा चूमा
ऊधम को पता था कि सजा क्या मिलनी है? सिर्फ दो दिनों में इस मुकदमें की कार्यवाही पूरी हो गई थी. फांसी की सजा के ऐलान के बाद जज की मेज की ओर थूकते हुए ऊधम अदालत से बाहर निकले थे. आगे अपील भी खारिज हो गई थी. 31 जुलाई 1940 को पेंटनविले जेल में ऊधम सिंह ने हंसते हुए फांसी का फंदा चूमा था. 31 साल पहले इसी जेल में 17 अगस्त 1909 को देश के एक और महान सपूत मदन लाल धींगरा भी इसी अंदाज में फांसी पर चढ़े थे.
ऊधम की फांसी के बीस साल बाद 1960 में पेंटनविले जेल से उनके अवशेष लाने की असफल कोशिश हुई थी. 14 साल बाद सफलता 1974 में कपूरथला के तत्कालीन विधायक साधू सिंह थिण्ड की कोशिशों से मिल सकी थी. उन दिनों ज्ञानी जैल सिंह पंजाब के मुख्यमंत्री थे. लन्दन से लाए गए अवशेष पहले दिल्ली के कपूरथाला हाउस में दर्शनार्थ रखे गए थे . फिर उनके पुश्तैनी गांव सुनाम (पंजाब) ले जाकर विधि-विधान से अंतिम संस्कार पूर्ण किया गया. 13 मार्च 2018 को जालियांवाला बाग़ में ऊधम सिंह की प्रतिमा स्थापित की गई. सम्मान में झुकते शीश उनके साहस-बलिदान का स्मरण कर आज भी रोमांचित हो जाते हैं.
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