भारत में हर साल करीब 13,000 छात्र आत्महत्या करते हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि शैक्षणिक और सामाजिक तनाव, मदद की कमी और जागरूकता का अभाव इसके मुख्य कारण हैं। सरकार ने मानसिक स्वास्थ्य सहायता बढ़ाने के…
भारत में हर साल करीब 13,000 छात्र आत्महत्या करते हैं.मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि कॉलेजों में सहायता कार्यक्रमों की जरूरत महसूस की जा रही है, पर असल सवाल यह है कि ऐसा हो क्यों रहा है?राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की ओर से हाल ही में जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में छात्रों की आत्महत्याएं चिंताजनक स्तर पर पहुंच गई हैं.देश में आत्महत्या करने वाले कुल लोगों में छात्रों की संख्या 7.6 फीसदी है.हाल ही में ओडिशा की एक छात्रा ने आत्मदाह कर लिया था.2022 के आंकड़ों पर आधारित इस नई रिपोर्ट से पता चलता है कि भारत में हर साल अनुमानित तौर पर करीब 13,000 छात्र आत्महत्या करते हैं.2023 और 2024 में आत्महत्या के आधिकारिक आंकड़े अभी जारी नहीं हुए हैं.शोध और सरकारी दस्तावेजों से पता चलता है कि छात्रों की आत्महत्याओं के पीछे मुख्य कारण शैक्षणिक और सामाजिक तनाव के साथ-साथ कॉलेजों या संस्थाओं से मदद ना मिलना और जागरूकता का अभाव है.ओडिशा में छात्रा के आत्मदाह से कटघरे में कानून और समाजइस मुद्दे का बारीकी से अध्ययन करने वाली न्यूरोसाइकियाट्रिस्ट अंजली नागपाल ने डीडब्ल्यू को बताया, “मैं इन आंकड़ों को सिर्फ आंकड़े नहीं मानती.बल्कि, ये समाज की उम्मीदों और नियमों के नीचे दबी खामोश पीड़ा के संकेत हैं”उन्होंने आगे कहा, “मैंने देखा है कि बच्चों को यह नहीं सिखाया जाता है कि असफलता, निराशा या अनिश्चितता से कैसे निपटना है.उन्हें सिर्फ परीक्षाओं के लिए तैयार किया जाता है, जिंदगी के लिए नहीं”नागपाल ने कहा, “स्कूलों में नियमित तौर पर मानसिक स्वास्थ्य की शिक्षा दी जानी चाहिए, ना कि कभी-कभार होने वाले सत्रों तक इसे सीमित रखना चाहिए.इसे हर रोज की पढ़ाई में शामिल करना होगा.बच्चों को ऐसा माहौल चाहिए जहां वे खुलकर बोल सकें और कोई उन्हें ध्यान से सुने. शिक्षकों को सिर्फ पढ़ाने नहीं, बल्कि सुनने की कला भी सिखाई जानी चाहिए”मानसिक स्वास्थ्य सहायता की मांग बढ़ीबीते सोमवार को भारत के शिक्षा राज्य मंत्री सुकांत मजूमदार ने संसद के एक सत्र के दौरान इस रिपोर्ट के निष्कर्ष साझा किए.सरकार ने इस बात को स्वीकार किया कि तमाम शैक्षणिक सुधारों और मानसिक स्वास्थ्य को लेकर उठाए गए नए कदमों के बावजूद , “अत्यधिक शैक्षणिक दबाव” कमजोर बच्चों और युवाओं पर बुरा असर डाल रहा है.मजूमदार ने बताया कि सरकार इस समस्या से निपटने के लिए कई तरह के कदम उठा रही है.इसके तहत छात्रों, शिक्षकों और अभिभावकों को मानसिक सहयोग देने के लिए कई योजनाएं शुरू की गई हैं.सुसाइड प्रिवेंशन इंडिया फाउंडेशन के संस्थापक नेल्सन विनोद मोसेस ने डीडब्ल्यू को बताया कि लगातार बनी रहने वाली “अत्यधिक प्रतिस्पर्धा, सख्त ग्रेडिंग प्रणाली और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की कमी, ये सभी चीजें छात्रों की आत्महत्याओं में अहम भूमिका निभाती हैं.मोसेस ने कहा, “यह एक ऐसी खामोश त्रासदी है जो कई जिंदगियों को तोड़ रही है.ऐसा लगता है कि भारत की शिक्षा प्रणाली के भीतर एक अनकही बेचैनी और अविश्वास धीरे-धीरे फैल रहा है”उनके मुताबिक, कॉलेज काउंसलर को इतना सक्षम बनाया जाना चाहिए कि वे समय रहते पहचान सकें कि किस छात्र को मदद की जरूरत है.उन्हें आत्महत्या की आशंकाओं, खतरे को समझने और सही सलाह देने की पूरी ट्रेनिंग मिलनी चाहिए.उन्होंने आगे कहा, “हम नहीं चाहते कि कोई युवा अपनी जिंदगी से हार मान ले.हम इसे रोक सकते हैं.इसके लिए जरूरी है कि कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में भावनात्मक मजबूती, तनाव से निपटने के तरीके और आत्महत्या की रोकथाम जैसी बातें सिखाई जानी चाहिए.छात्रों और शिक्षकों को यह सिखाना जरूरी है कि वे दूसरों की तकलीफ को समय पर पहचान सकें. इसे “गेटकीपर ट्रेनिंग” कहा जाता है”कमजोर छात्रों के लिए “सुरक्षा कवच” जरूरी2019 में भारत में कॉलेज के छात्रों के बीच आत्महत्या के मामलों पर एक अध्ययन किया गया.यह अध्ययन ऑस्ट्रेलिया की मेलबर्न यूनिवर्सिटी, भारत के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेस और कई भारतीय मेडिकल कॉलेजों ने मिलकर किया था.इस अध्ययन का उद्देश्य यह समझना था कि मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं छात्रों पर किस हद तक असर डाल रही हैं और आत्महत्या जैसे खतरनाक कदम उठाने पर मजबूर कर रही हैं.इस अध्ययन के लिए, भारत के नौ राज्यों के 30 विश्वविद्यालयों के 8,500 से ज्यादा छात्रों के बीच सर्वे किया गया.इसमें पाया गया कि पिछले एक साल में 12 फीसदी से ज्यादा छात्रों के मन में आत्महत्या के विचार आए थे.6.7 फीसदी ने अपनी जिंदगी में कभी ना कभी आत्महत्या का प्रयास किया.अध्ययन में कहा गया है कि स्कूल-कॉलेजों में मानसिक सेहत से जुड़ी मदद और उपाय तुरंत शुरू करने चाहिए, ताकि इस बढ़ती हुई समस्या से निपटा जा सके.भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस स्थिति को “आत्महत्या की महामारी” बताया.उसने मार्च में 10 सदस्यों वाले एक राष्ट्रीय कार्यबल का गठन किया.यह कार्यबल अभी कई तरह की जांच, परामर्श, और संस्थागत समीक्षाओं में लगा हुआ है.इसका मकसद एक व्यापक नीतिगत खाका तैयार करना है.छात्रों पर परीक्षा का बोझएजुकेशन टेक्नोलॉजी स्टार्टअप “करियर360” छात्रों को करियर से जुड़ा मार्गदर्शन उपलब्ध कराता है और प्रवेश परीक्षा की तैयारी कराता है. इस स्टार्टअप के संस्थापक और सीईओ महेश्वर पेरी ने डीडब्ल्यू को बताया कि कई भारतीय युवाओं पर यह दबाव होता है कि उन्हें हर हाल में अपने करियर में सफल होना है.पेरी ने कहा, “यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि कभी-कभी एक छात्र को सिर्फ एक दिन की प्रतियोगी परीक्षा के आधार पर आंका जाता है.इसी दबाव में वह अपनी जान तक दे देता है.हमें छात्रों के लिए ऐसी सहायता प्रणाली और व्यवस्था बनानी होगी जो उन्हें संभाल सके और इस तरह के हालात से बचा सके.हमें छात्रों के लिए सुरक्षा कवच बनाने की जरूरत है”उन्होंने आगे बताया, “इनमें से अधिकांश छात्रों को सही मदद नहीं मिल पाती है और वे अकेले ही पढ़ते रहते हैं.हमें तुरंत ऐसी मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं बढ़ानी होंगी जो छात्रों की जरूरत के हिसाब से हों”दिल्ली के मनोचिकित्सक अचल भगत के पास 30 साल से ज्यादा का अनुभव है.उनका मानना है कि सफलता की संकीर्ण परिभाषा, लैंगिक भेदभाव, हिंसा और नौकरी के सीमित अवसर, ये सभी चीजें छात्रों में मानसिक तनाव और समस्याओं को बढ़ावा देती हैं.भगत ने डीडब्ल्यू को बताया, “या तो आप असफल होते हैं या फिर आप प्रतिभाशाली होते हैं.हमारे समाज और उसकी संस्थाओं को नियंत्रित करने वाली व्यवस्थाएं इसी दोधारी सोच पर टिकी हैं.ये सिस्टम ना तो लचीलापन दिखाते हैं और ना ही युवाओं की बात सुनते हैं.इसी अनसुनी और बेबसी की भावना से निराशा पैदा होती है, जो आखिरकार एक दर्दनाक अंत में बदल जाती है”वह कहते हैं, “मेरे हिसाब से, इस समस्या का हल तभी संभव है जब युवा अपनी जिंदगी से जुड़े फैसलों में खुद शामिल हों.उन्हें सही मार्गदर्शन मिले और ऐसे रोल मॉडल तैयार किए जाएं जिन्हें वे आसानी से अपना सकें, ताकि सफलता की परिभाषा सिर्फ अंकों या करियर तक सीमित ना रहे”.