होम राजनीति Shankar Bigha Massacre: शंकर बिगहा नरसंहार ने बिहार के समाज पर गहरे निशान छोड़े! जातीय संघर्ष के उस काले अध्याय को आज भी नहीं भूले हैं लोग

Shankar Bigha Massacre: शंकर बिगहा नरसंहार ने बिहार के समाज पर गहरे निशान छोड़े! जातीय संघर्ष के उस काले अध्याय को आज भी नहीं भूले हैं लोग

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पटना. 25 जनवरी 1999 की रात बिहार के जहानाबाद जिले के शंकर बिगहा गांव में एक भयावह नरसंहार ने पूरे राज्य को झकझोर दिया था. भूस्वामियों की निजी सेना रणवीर सेना ने मासूम बच्चों और महिलाओं सहित 23 दलितों की निर्मम हत्या कर दी थी. यह घटना न केवल जातीय हिंसा का एक क्रूर उदाहरण थी, बल्कि बिहार के सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक ताने-बाने में गहरे अंतर्विरोधों को भी बताती है. इस नरसंहार की पृष्ठभूमि, इसके सामाजिक-राजनीतिक प्रभाव और कानूनी कार्रवाई की विफलता ने बिहार के समाज पर गहरे निशान छोड़े हैं. दरअसल, शंकर बिगहा नरसंहार बिहार में 1990 के दशक की जातीय हिंसा की एक कड़ी है. यह भूमि विवादों और नक्सलवादी आंदोलनों से उपजी थी. बिहार में जमींदारी उन्मूलन के बाद भी भूमि का असमान हिस्सेदारी और ऊंची जातियों के सामाजिक वर्चस्व ने इन विवादों को और गहरा कर दिया था. इस असमानता ने नक्सलवादी संगठनों, विशेष रूप से कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन (सीपीआई-एमएल) और माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) को मजदूरों और दलितों के बीच समर्थन दिलाया. ये संगठन जहां एक ओर न्यूनतम मजदूरी, भूमि सुधार और सामंती उत्पीड़न के खिलाफ संघर्ष की बात कर रहे थे, वहीं इसकी आड़ में जातीय बंटवारे की राजनीति से सत्ता में बने रहने की कवायद भी कर रहे थे.

इसकी पृष्ठभूमि में वह मोड़ भी आया जब ऊंची जातियों ने इनके जवाब में 1994 में भोजपुर जिले में रणवीर सेना गठित की थी.यह भूस्वामियों, विशेषकर भूमिहार समुदाय के लोगों की एक निजी सेना थी जिसका उद्देश्य नक्सलवादी प्रभाव को कुचलना और भूस्वामियों की जमीनों को बचाए रखना था. शंकर बिगहा नरसंहार के पृष्ठभूमि में जहानाबाद और भोजपुर में भूस्वामियों पर एमसीसी के किये गए हमले थे. इन हमलों में 1999 में नदही गांव में नौ भूमिहारों की हत्या शामिल थी. इसके बाद रणवीर सेना ने नक्सलियों के खिलाफ बदले की कार्रवाई के रूप में शंकर बिगहा कांड को अंजाम दिया, जिसमें दलितों को निशाना बनाया गया. दरअसल, रणवीर सेना इन्हें नक्सल समर्थक मानती थी. रणवीर सेना के नेता शमशेर बहादुर सिंह ने खुले तौर पर इस नरसंहार की जिम्मेदारी ली थी और इसे “किसानों की इज्जत और संपत्ति की रक्षा” का कदम बताया था.

राजनीतिक-सामाजिक ताने-बाने पर प्रहार

शंकर बिगहा नरसंहार ने बिहार के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य पर गहरा प्रभाव डाला. यह घटना इसलिए भी अहम थी क्योंकि गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर इसको अंजाम दियागया था. इसने न केवल बिहार की कानून-व्यवस्था पर सवाल उठाए, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर बहस तेज कर दी कि आजादी के 50 वर्षों के बाद भी बिहार में जातीय वैमनस्यता की जड़ें इतनी गहरी क्यों हैं? तब बिहार की मुख्यमंत्री राबड़ी देवी थीं. इस घटना के बाद वह पति लालू प्रसाद यादव के साथ घटनास्थल पर गए और पीड़ितों के लिए मुआवजे, सरकारी नौकरी और पक्के मकानों की घोषणा की. हालांकि, ग्रामीणों ने लक्ष्मणपुर-बाथे नरसंहार (1997) के दोषियों की गिरफ्तारी में देरी का हवाला देते हुए सरकार की मंशा पर सवाल उठाए. इसने लालू-राबड़ी शासन की विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचाया, क्योंकि उनकी सरकार पर नक्सलवाद को बढ़ावा देने और जाति आधारित घृणा को बढ़ावा देने के आरोप लगे.

लालू यादव के कार्यकाल में नरसंहारों का दौर था जिसको उनके राजनीतिक रणनीति से भी जोड़ा गया.

2006 में भंग कर दिया गया अमीर दास आयोग

बहरहाल, शंकर बिगहा नरसंहार ने बिहार में जातीय ध्रुवीकरण को और गहरा किया. रणवीर सेना को कुछ राजनीतिक दलों, विशेष रूप से भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) और जनता दल (यूनाइटेड) के कुछ नेताओं का समर्थन होने की बात सामने आई. 2015 में एक स्टिंग ऑपरेशन में बीजेपी नेताओं मुरली मनोहर जोशी और सी.पी. ठाकुर के रणवीर सेना से संबंधों की बात उजागर हुई थी. उस वक्त लालू प्रसाद की सरकार द्वारा गठित अमीर दास आयोग, रणवीर सेना और राजनीतिक दलों के बीच संबंधों की जांच कर रहा था. लेकिन, बाद में जब नीतीश कुमार सरकार बनी तो वर्ष 2006 में भंग कर दिया जिससे सवाल उठे. सामाजिक रूप से इस नरसंहार ने दलित समुदायों में भय और अविश्वास को बढ़ाया, क्योंकि रणवीर सेना की रणनीति थी कि दलितों को निशाना बनाकर नक्सल आंदोलन को कमजोर किया जाए.

‘न्याय का नरसंहार’, कानूनी कार्रवाई पर सवाल

शंकर बिगहा नरसंहार के बाद पुलिस ने 24 लोगों को आरोपी बनाया, लेकिन 13 जनवरी 2015 को जहानाबाद की एक अदालत ने साक्ष्य की कमी का हवाला देकर सभी को बरी कर दिया. यह फैसला बिहार में न्याय व्यवस्था की विफलता का प्रतीक बन गया. पीपल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (पीयूडीआर) ने इस फैसले को ‘न्याय का नरसंहार’ करार दिया और सुप्रीम कोर्ट से स्वत: संज्ञान लेने की मांग की. संगठन ने एक विशेष जांच दल (एसआईटी) के गठन, गवाहों को सुरक्षा और रणवीर सेना-पुलिस-राजनीतिक दलों के गठजोड़ की जांच के लिए एक आयोग की मांग की. खास बात यह कि इस नरसंहार से पहले भी रणवीर सेना के किए गए बथानी टोला (1996) और लक्ष्मणपुर-बाथे (1997) जैसे नरसंहारों में भी अधिकांश आरोपी बरी हो चुके थे.

शंकर बिगहा हत्याकांड के रिहा हुए अभियुक्त

बिहार के सामाजिक ढांचे पर गहरा असर

पुलिस की लापरवाही, गवाहों की सुरक्षा की कमी और राजनीतिक दबाव ने इन मामलों में न्याय को प्रभावित किया. शंकर बिगहा के बाद 10 फरवरी 1999 को पास के नारायणपुर गांव में रणवीर सेना ने 12 और लोगों की हत्या की, जिससे पुलिस की निष्क्रियता और उजागर हुई. शंकर बिगहा नरसंहार ने बिहार के सामाजिक ढांचे पर गहरा प्रभाव डाला. इसने दलितों और भूमिहीन मजदूरों में असुरक्षा की भावना को बढ़ाया, जिससे कई परिवार गांव छोड़कर चले गए. नक्सलवादी संगठनों ने इस घटना का इस्तेमाल अपने समर्थन को बढ़ाने के लिए किया, जिससे हिंसा का चक्र और तेज हुआ. 1999 में ही सेनारी गांव में एमसीसी ने 34 भूमिहारों की हत्या कर बदला लिया जो इस नरसंहार का प्रत्यक्ष परिणाम था.

बिहार के समाज पर दीर्घकालिक प्रभाव

हालांकि, 2005 में नीतीश कुमार के सत्ता में आने के बाद नक्सलवादी हिंसा में कमी आई. उनकी सरकार ने सामाजिक-आर्थिक सुधारों और कठोर प्रशासनिक नीतियों के जरिए हिंसा को नियंत्रित करने की कोशिश की. फिर भी शंकर बिगहा जैसे नरसंहारों ने बिहार के समाज में जातीय तनाव को स्थायी रूप से गहरा कर दिया. दलित और पिछड़े समुदायों में राजनीतिक चेतना बढ़ी, जिसने लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार जैसे नेताओं की सामाजिक न्याय की राजनीति को मजबूत किया.

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