होम झारखंड आजादी की पहली लड़ाई, सिदो-कान्हू ने भोगनाडीह से किया था हूल क्रांति का आगाज Hul Diwas 2025 first battle of independence Sido Kanhu started revolution from Bhognadih

आजादी की पहली लड़ाई, सिदो-कान्हू ने भोगनाडीह से किया था हूल क्रांति का आगाज Hul Diwas 2025 first battle of independence Sido Kanhu started revolution from Bhognadih

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Hul Diwas 2025: बरहरवा (साहिबगंज), विकास जायसवाल-संथाल हूल का आगाज जिस धरती से सिदो-कान्हू ने किया था, उस भोगनाडीह की धरती पर भव्य पार्क का निर्माण कराया गया है. भोगनाडीह में यह पार्क उनके पैतृक घर से 200 मीटर की दूरी पर स्थित है. यहां पर सिदो-कान्हू के अलावा उनके छोटे भाई चांद-भैरव, बहन फूलो-झानो की भी अलग-अलग प्रतिमाएं लगायी गयी हैं. इतिहास के पन्नों में दर्ज यह ऐतिहासिक भूमि इस बात की आज भी गवाही देती है कि यहां पर हजारों की संख्या में संथाल विद्रोहियों ने जमा होकर अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ सिदो-कान्हू के साथ मिलकर हूल का आगाज किया था. 30 जून 1855 के संथाल हूल की क्रांति आजादी की पहली लड़ाई मानी जाती है क्योंकि अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत सबसे पहले सिदो-कान्हू ने ही की थी. इस दौरान उनके साथ कई संथाल विद्रोही मारे गए थे. इसके बाद संथाल विद्रोह धीरे-धीरे और तेज हो गया. संथाल विद्रोहियों में आक्रोश बढ़ता गया. अंग्रेजी हुकूमत ने सिदो-कान्हू को खोजने के लिए अपनी पूरी फौज लगा दी थी फिर भी उन्हें पकड़ नहीं पायी थी. 25 अप्रैल 1856 को सिदो मुर्मू को पकड़कर पंचकठिया लाया गया. 26 अप्रैल 1856 की सुबह बरगद के पेड़ पर सिदो मुर्मू को फांसी की सजा दी गयी थी.

पंचकठिया के बरगद का पेड़, जहां दी गई थी फांसी की सजा

साहिबगंज जिले के बरहेट प्रखंड के पंचकठिया स्थित करीब 200 वर्ष पुराना बरगद का पेड़ इतिहास में दर्ज है. इस पेड़ पर 26 जुलाई 1856 को महाजनी प्रथा, अंग्रेजी हुकूमत और साहूकारों के खिलाफ हूल का अगाज करने वाले सिदो मुर्मू ,कान्हू मुर्मू, चांद मुर्मू, भैरव मुर्मू एवं बहन फूलो और झानो के सबसे बड़े भाई सिदो मुर्मू को अंग्रेजों ने पकड़ कर फांसी की सजा दी थी. इसके बाद से यह पचंकठिया संथाल आदिवासियों के लिए पवित्र स्थल बन गया. यहां पर 30 जून को हूल दिवस के अवसर पर संथाल समाज के हजारों लोग पारंपरिक वेशभूषा में पहुंचते हैं और सिदो-कान्हू को नमन करते हुए पूजा-पाठ करते हैं. वंशज परिवार के मंडल मुर्मू और रूपचंद मुर्मू ने बताया कि पचंकठिया का यह क्रांति स्थल और हमारा भोगनाडीह स्थित सिदो-कान्हू पार्क में हूल दिवस के अवसर पर बिहार, झारखंड, असम, पश्चिम- बंगाल, ओडिशा सहित अन्य जगहों से संथाल आदिवासी समाज के लोग पहुंचते हैं और सिदो-कान्हू को नमन करते हैं. परिजन बताते हैं कि हमें गर्व है कि हम सिदो-कान्हू के वंशज हैं.

Sido Kanhu Chand Bhairav Phulo Jhano Murmu 1
सिदो-कान्हो अपने भाइयों चांद-भैरव और बहन फूलो-झानो के साथ

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आंदोलनकारियों की प्यास बुझाता था कदमडांडी कुआं

हूल क्रांति का आगाज करने वाले सिदो-कान्हू के साथ 50 हजार से अधिक संथाल विद्रोहियों का आंदोलन के दौरान भोगनाडीह स्थित यह कदमडांडी कुआं प्यास बुझाने का काम करता था. भूखे पेट तो कभी कई किलोमीटर तक लंबा सफर करने के बाद आंदोलनकारी जब भोगनाडीह वापस आते तो इसी कुएं के चारों तरफ बैठकर अपनी प्यास बुझाते थे. इस कुएं का पानी आज भी इतना पवित्र है कि इसके पानी का लोग पेयजल के रूप में उपयोग करते हैं. पूरे आंदोलन के दौरान संथाल विद्रोहियों के लिए यह कुआं संजीवनी से कम नहीं था क्योंकि आसपास पानी का कोई स्रोत नहीं था और यह कुआं ही ऐसा था जो सभी संथाल विद्रोहियों को प्यास बुझाने का काम करता था. सिदो-कान्हू के वंशज बताते हैं कि हूल के दौरान जब भी कोई लड़ाई की शुरुआत होती या किसी लड़ाई में भोगनाडीह से निकलना होता था तो सभी आंदोलनकारी इसी कुएं पर स्नान और पूजा-पाठ करने के बाद अपने-अपने गंतव्य की ओर रवाना हो जाते. इतिहास के पन्नों में यह कुआं तो बहुत कम ही आपको देखने को मिलेगा लेकिन इस कुएं की महत्ता आज भी काफी अहम है. यह कुआं सिदो कान्हू के खपरैल मकान के ठीक सामने पगडंडियों के सहारे आगे जाने पर खेत की ओर स्थित है. यहां पर भी 30 जून को हूल दिवस के अवसर पर लोग आते हैं और प्रसाद के रूप में इसका शुद्ध जल ग्रहण करते हैं.

सिदो-कान्हू का खपरैल मकान में हुआ था जन्म

खपरैल मकान में 11 अप्रैल सन 1815 की मध्य रात्रि को चुन्नू मुर्मू एवं सुनी हांसदा के घर के इसी आंगन में सिदो मुर्मू का जन्म हुआ था. जन्म के बाद से ही धीरे-धीरे इसी आंगन में सिदो बड़े हुए. उसके बाद उनके छोटे भाई कान्हू मुर्मू का जन्म भी इसी आंगन में हुआ. वंशज परिवार की सबसे बुजुर्ग महिला बिटिया हेंब्रम बताती हैं कि उनके पूर्वजों से हम लोगों को थोड़ी-थोड़ी जानकारी प्राप्त हुई है. सिदो कान्हू के जन्म के बाद उनके छोटे भाई चांद और भैरव एवं बहन फूलो और झानो का भी जन्म इसी आंगन में हुआ था. उन लोगों ने 30 जून 1855 को संथाल हूल का आगाज किया तो गांव के बाहर हजारों की संख्या में संथाल आदिवासी लोग एक साथ जुड़ गए और संथाल हूल का आगाज इसी गांव से किया गया. आंगन में फैली मिट्टी इस बात की गवाह दे रही है कि यह वीर भूमि की धरती है. बाद में आंगन में ही सिदो और कान्हू की प्रतिमा लगायी गयी है. हर साल हूल दिवस के अवसर पर काफी संख्या में लोग पहुंचते हैं और उन्हें नमन करते हैं.

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