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आस्था, मान्यता व परंपराओं की यात्रा है जगन्नाथ रथयात्रा, उत्कलीय परंपरा की दिखती है झलक

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Rath Yatra 2025 | खरसावां, शचिंद्र कुमार दाश: प्रभु जगन्नाथ को कलयुग में जगत के पालनहार श्रीहरि विष्णु का रुप माना जाता है. प्रभु जगन्नाथ 27 जून को बड़े भाई बलभद्र व बहन सुभद्रा के साथ रथ पर सवार हो कर मौसीबाड़ी गुंडिचा मंदिर जायेंगे. 5 जुलाई को प्रभु वापस अपने भाई-बहन के साथ श्रीमंदिर वापस लौटेंगे. श्री मंदिर से रथ पर सवार होकर मौसीबाड़ी जाने को रथ यात्रा, गुंडिचा यात्रा या घोष यात्रा कहा जाता है. श्री जगन्नाथ की रथ यात्रा विभिन्न धर्म, जाति, लींग के बीच सामंजस्य स्थापित करता है. श्री जगन्नाथ की वार्षिक रथ यात्रा प्रभु के प्रति भक्त के आस्था, मान्यता व परंपराओं की यात्रा है.

शास्त्र व पुराणों में भी है रथ यात्रा की महत्ता का जिक्र

Jagannath Rath Yatra
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रथ यात्रा के दौरान आस्था की डोर को खींचने के लिये भक्त पूरे साल इंतजार करते हैं. मान्यता है कि आषाढ़ शुक्ल के द्वितीया तिथि को आयोजित होने वाली रथ यात्रा की प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है. रथ यात्रा का प्रसंग स्कंदपुराण, पद्मपुराण, पुरुषोत्तम माहात्म्य, बृहद्धागवतामृत में भी वर्णित है. शास्त्रों और पुराणों में भी रथ यात्रा की महत्ता को स्वीकार किया गया है.

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स्कंद पुराण में क्या कहा गया है

स्कंद पुराण में स्पष्ट कहा गया है कि रथ यात्रा में जो व्यक्ति श्री जगन्नाथ जी के नाम का कीर्तन करता हुआ गुंडीचा मंदिर तक जाता है. वह सीधे भगवान श्री विष्णु के उत्तम धाम को जाते हैं. जो व्यक्ति गुंडिचा मंडप में रथ पर विराजमान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा देवी के दर्शन करते उन्हों मोक्ष की प्राप्ति होती है. रथ यात्रा एक ऐसा पर्व है जिसमें भगवान जगन्नाथ चलकर जनता के बीच आते हैं और उनके सुख दुख में सहभागी होते हैं.

जीवंत हो जाती है राजवाड़ों की परंपरा

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हरिभंजा में स्थापित प्रभु जगन्नाथ, भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की प्रतिमा

रथ यात्रा में न सिर्फ प्रभु के प्रति भक्त की भक्ति दिखायी देती है. बल्कि राजवाड़े के समय से चली आ रही समृद्ध उत्कलीय परंपरा भी जीवंत हो जाती है. मान्यता है कि रथ यात्रा एक मात्र ऐसा मौका होता है, जब प्रभु भक्तों को दर्शन देने के लिये श्रीमंदिर से बाहर निकलते हैं और रथ पर सवार प्रभु जगन्नाथ के दर्शन से ही सारे पाप कट जाते हैं.

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सरायकेला-खरसावां की रथ यात्रा है खास

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हरिभंजा में तैयार प्रभु का रथ

यूं तो ओडिशा के पुरी में आयोजित होने वाली रथ यात्रा विश्व विख्यात है. लेकिन सरायकेला-खरसावां में भी श्रीजगन्नाथ रथ यात्रा की अलग विशेषता है. यहां भी ओड़िशा के प्रसिद्ध जगन्नाथपुरी के तर्ज पर पारंपरिक रुप से रथ यात्रा निकलती है. पुरी में आयोजित होने वाले हर रस्म-रिवाज को यहां भी पूरा किया जाता है. ओडिया संस्कृति के विशाल परंपराओं में समाहित किये सरायकेला-खरसावां जिला में तीन सौ साल से भी अधिक समय से रथ यात्रा का आयोजन किया जा रहा है.

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सदियों पुरानी परंपरा देखने का मिलता है अवसर

रथ यात्रा के दौरान सदियों पुरानी परंपरा देखने को मिलती है. रथ यात्रा के समय विग्रहों को मंदिर से रथ तक पहुंचाने के समय राजा सड़क पर चंदन छिड़क कर वहां झाड़ू लगाते हैं. इस परंपरा को छेरा पहंरा कहा जाता है. इसी रस्म अदायगी के बाद ही रथ यात्रा की शुरुआत होती है. साथ ही रथ के आगे भक्तों की टोली भजन कीर्तन करते आगे बढ़ती है. भले ही राजपाट चली गयी हो, परंतु राजवाड़े के समय शुरु की गयी परंपरा आज भी निभाई जाती है. यहां भी रथ यात्रा में सभी परंपराओं का पालन होता है, जो कभी राजतंत्र के समय होता था.

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जिला के अलग-अलग क्षेत्रों में होता है आयोजन

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सरायकेला खरसावां के अलावे खरसावां के हरिभंजा, बंदोलौहर, गालुडीह, दलाईकेला, जोजोकुड़मा, सरायकेला, सीनी, चांडिल, रघुनाथपुर व गम्हरिया में भी भक्ति भाव से रथ यात्रा का आयोजन होता है. हरिभंजा में जमींदार नर्मदेश्वर सिंहदेव के समय शुरु हुई रथ यात्रा करीब ढ़ाई सौ साल पुरानी है. यहां बड़ी संख्या में बाहर से भी लोग रथ यात्रा देखने के लिये पहुंचते हैं. सरायकेला में रथ यात्रा के मौके पर मेला भी लगाया जाता है. साथ ही भगवान जगन्नथ, बलभद्र व देवी सुभद्र के अलग वेशों में रुप सज्जा की जाती है.

रथ यात्रा में दिखती है उत्कलीय परंपरा की झलक

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खरसावां में सजधज कर तैयार प्रभु जगन्नाथ का नंदीघोष रथ

खरसावां में भी रथ यात्रा के दौरान उत्कलीय परंपरा की झलक दिखायी देती है. चांडिल में पुरी की तर्ज पर तीन अलग-अलग रथों पर सवार हो कर प्रभु जगन्नाथ, बलभद्र व देवी सुभद्रा गुंडिचा मंदिर पहुंचते हैं. रथ यात्रा में प्रभु जगन्नाथ के दर्शन को काफी पुण्य माना जाता है. इसी दिन प्रभु जगन्नाथ अपने भक्तों को दर्शन देने के लिये मंदिर से बाहर निकलते हैं. रथ यात्रा के बाद प्रभु जगन्नाथ एक सप्ताह तक अपने मौसी के घर (गुंडिचा मंदिर) में रहने के बाद फिर एक बार अपने निवास स्थान श्रीमंदिर वापस लौटते हैं. सरायकेला-खरसावां में आज भी रथ यात्रा का आयोजन काफी भक्ति-श्रद्धा के साथ किया जाता है.

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