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इंदिरा गांधी की इमरजेंसी पर सुप्रीम कोर्ट के जजों ने क्या कहा था?

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इमरजेंसी की वैधता के सवाल पर सुप्रीमकोर्ट के चीफ जस्टिस ए. एन.रे की अगुवाई वाली पांच सदस्यीय बेंच ने सुनवाई की थी.

उन दिनों चंद्रशेखर कांग्रेस में थे. लेकिन इंदिरा गांधी और जेपी की सुलह कराने की कोशिश में इंदिरा को नाराज कर चुके थे. 25 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में विपक्षी दलों की विशाल सभा थी. इंदिरा गांधी से कुर्सी छोड़ने की मांग करते हुए जेपी ने सरकारी अमले और सुरक्षा बलों से अनैतिक सरकार के आदेश न मानने की अपील की. चंद्रशेखर उस शाम सुपरहिट फिल्म “शोले” देखने रीगल चले गए थे. वापसी में साथी दयानंद सहाय ने कहा कि आज तो जेपी ने कमाल कर दिया. चंद्रशेखर ने कहा कि इसे फिलहाल उनका आखिरी भाषण समझो.

उसी रात साढ़े तीन बजे पुलिस की एक गाड़ी गांधी शांति प्रतिष्ठान पहुंची. जेपी जगाए गए. फिर पुलिस की गाड़ी में पार्लियामेंट थाने के रास्ते में थे. चंद्रशेखर पीछे – पीछे एक टैक्सी में थे. जेपी को लेकर फिक्रमंद थे. पर थाने के बाहर रोक दिए गए. बाद में एक एस.पी.चंद्रशेखर को भीतर ले गया. बताया कि आप भी गिरफ्तार हैं. पुलिस तब तक कई अन्य विपक्षी नेताओं को थाने ला चुकी थी.

जेपी को गिरफ्तारी की सूचना देने में पुलिस हिचकिचा रही थी. चंद्रशेखर ने उनसे कहा, “आपकी लिए गाड़ी आ गई है. आप जाइए. हमें दूसरी जगह ले जाया जाएगा. जेपी ने कहा,”आप भी ! ” फिर जेपी के मुख से फूटा. विनाशकाले विपरीत बुद्धि .

पचास साल बाद भी इमरजेंसी की याद

पचास साल पुराना प्रसंग है. लेकिन संसद से सड़कों तक. सभा-सम्मेलनों-गोष्ठियों और जहां-तहां बार-बार इसे ताजा किया जाता है. वो संविधान जिसे देश ने 26जनवरी 1950 को अंगीकृत किया और जिसे अमल में लाने की अगुवाई का यश पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को प्राप्त है, को 25 साल के अंतराल पर उनकी बेटी इंदिरा गांधी ने ताख पर रख दिया था. विपक्षी जेल में भेज दिए गए थे. नागरिकों को उनके मूल अधिकारों से वंचित कर दिया गया. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ताले लगा दिए गए. अखबारों के लिए कुछ भी छापने से पहले सरकारी इजाजत जरूरी कर दी गई. अदालतें असहाय हो गईं. संसद गूंगी हो गई. संविधान में मनमाने संशोधन किए गए. समूचा देश खुली जेल में तब्दील कर दिया गया.

Indira Gandhi 12 June Verdict Hc

12 जून 1975 के फैसले के बाद पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बदल दी देश की राजनीति.

इमरजेंसी क्यों?

इसकी जाहिर वजह 12 जून 1975 का इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा का वो फैसला था, जिसके जरिए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का रायबरेली से लोकसभा का निर्वाचन रद्द हो गया था. अगले छह साल के लिए वे चुनाव लड़ने से अयोग्य ठहरा दी गई थीं. विपक्ष उनसे फ़ौरन इस्तीफा चाहता था. 24 जून 1975 को सुप्रीम कोर्ट की अवकाशकालीन पीठ के जस्टिस कृष्णा अय्यर ने एक अंतरिम आदेश के जरिए हाईकोर्ट के आदेश को मुल्तवी कर दिया था. लेकिन यह राहत भी शर्तों के अधीन थी.

इंदिरा गांधी को संसद में बैठने की इजाजत तो मिली लेकिन उन्हें वोट देने का अधिकार नहीं था. गुजरात, बिहार सहित उत्तर भारत पहले से ही सत्ता विरोधी आंदोलनों की चपेट में था. 1942 के आंदोलन के महानायक जेपी इस वक्त तक बूढ़े हो चुके थे. लेकिन वे देश की जवानी को सरकार को उखाड़-फेंकने के लिए ललकार रहे थे. उनके सम्पूर्ण क्रांति के आह्वान पर सड़कें अंधकार में एक प्रकाश-जय प्रकाश, जय प्रकाश के नारों से गूंज रही थीं.

आर-पार की मुद्रा में इंदिरा

फौरी तौर पर इंदिरा गांधी की कुर्सी सुरक्षित थी. लेकिन विपक्ष सड़कों पर था. सुप्रीम अदालत के फैसले की करवट का भी ठिकाना नहीं था. इंदिरा गांधी आर-पार की मुद्रा में थीं. मदद के लिए उनके छोटे बेटे संजय गांधी मैदान में आ चुके थे. पार्टी के भीतर उठते असंतोष के स्वर शांत करने थे. विपक्ष को माकूल जवाब देना था. खुशामदियों के बीच कुछ कर दिखाने की होड़ थी. ऐसे मौके पर इंदिरा गांधी के सहयोगी पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे ने संविधान के अनुच्छेद 352 की तज़बीज पेश की.

आंतरिक इमरजेंसी से जुड़े इस प्रावधान का देश में पहले कभी प्रयोग नहीं हुआ था. गुजरे 50 वर्षों में यह फिर कभी दोहराया भी नहीं गया. इसे लागू करने के लिए मंत्रिमंडल की सिफारिश अगली सुबह हासिल की गई. राष्ट्रपति फखरुद्दीन अहमद को जगा कर रात में ही दस्तखत करा लिए गए. सोते से जगाए गए और भी तमाम लोग. दिल्ली से राज्यों की राजधानी और जिलों से कस्बों तक. ये विपक्ष से जुड़े बड़े-छोटे तमाम नेता और कार्यकर्ता थे, जिनमें अधिकांश को अगले 21 महीने जेल में बिताने थे.

Indira Gandhi Ex Pm

राजनारायण बनाम इंदिरा गांधी मामले में अदालत के फैसले ने देश की राजनीति में भूचाल ला दिया था.

सारे नियम-कानून दरकिनार

इस दौर में नियम-कानून दरकिनार थे. नौकरशाही-पुलिस का राज था. परिवार नियोजन का बेहद जरूरी कार्यक्रम जबरिया नसबंदी की जुल्म ज्यादती का पर्याय बन गया. 1973-74 में जहां देश में महज 9.4 लाख नसबंदी हुईं, वहीं इमरजेंसी के दौरान 1976-77 में इसकी संख्या 82.6 लाख थी.

सुंदरीकरण के लिए तुर्कमान गेट पर बुलडोजर चले. संजय गांधी की संविधानेतर सत्ता के आगे जिस कांग्रेसी दिग्गज ने कोर्निश नहीं बजाई, वो हाशिए पर कर दिया गया. कांग्रेस अध्यक्ष देव कांत बरुआ के ‘इंदिरा इज़ इंडिया’ के नारे और इंदिरा तेरी सुबह की जय, तेरी शाम की जय के कोरस ने सबको पीछे छोड़ दिया.

जेल में बीमार जेपी के लिए बंसीलाल कह रहे थे, ‘उन्हें मरने दो.’ गृह मंत्री ब्रह्मानंद रेड्डी किनारे थे. संजय मंडली के सदस्य गृह राज्य मंत्री ओम मेहता की तूती बोल रही थी. संजय की कसौटी पर फिसड्डी साबित होने वाले इंद्र कुमार गुजराल को अपमानित करके सूचना प्रसारण मंत्री पद से हटाया गया. इस कुर्सी पर पहुंचे विद्या चरण शुक्ल ने प्रेस को दुरुस्त करने-रखने और इंदिरा-संजय को खुश रखने के लिए सारी मर्यादाएं लांघ दीं.

…और अदालतें क्या कह रही थी?

इमरजेंसी की वैधता के सवाल पर सुप्रीमकोर्ट के चीफ जस्टिस ए. एन.रे की अगुवाई वाली पांच सदस्यीय बेंच ने सुनवाई की थी. अन्य जज थे – एच.आर.खन्ना, एम. एच. बेग,वाई. वी.चंद्रचूड़ और पी. एन.भगवती. सरकार का तर्क था कि राष्ट्रपति ने आपातकाल लागू करके अनुच्छेद 21 स्थगित कर दिया है, इसलिए उससे जुड़ा कोई मामला अदालत के सामने नहीं लाया जा सकता.

सी.के.दफ्तरी का प्रतिवाद था,”कानून का शासन न तो स्थगित किया जाता है और न किया जा सकता है. अनुच्छेद 21 जीवन, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और किसी अदालत में मुकदमा दायर करने का अधिकार देता है. सुप्रीम कोर्ट का 4-1 के बहुमत से फैसला सरकार के हक में था. ए. एन रे का निर्णय था,” सार्वजनिक खतरा पैदा होने की हालत में व्यक्ति को मिलने वाली कानूनी सुरक्षा को राज्य के हित में झुकना होगा.,” बेग का निष्कर्ष था,” अगर कैदी का बचाव का अधिकार ही स्थगन की स्थिति में है तो उसकी ओर से कोई भी उसके अधिकारों की मांग नहीं कर सकता.”

चंद्रचूड़ के अनुसार आपातकाल की घोषणा अंतिम, निर्णायक और न्याय की कसौटी से परे है. भगवती ने लिखा,” वैयक्तिक स्वतंत्रता और कानून का शासन संविधान से संचालित होता है और चूंकि गिरफ्तारियां कानून के मुताबिक हैं, इसलिए बंदियों के पास कोई उपाय नहीं. असहमति का इकलौता अल्पमत निर्णय जस्टिस खन्ना का था. उनके अनुसार इमरजेंसी की हालत में भी किसी व्यक्ति को जीवन या उसके वैयक्तिक अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता.

उन्होंने लिखा कि प्रश्न यह नहीं है कि क्या वैयक्तिक स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया जा सकता है, बल्कि यह कि क्या इस तरह के सार्वजनिक खतरे को देखते हुए कानून को पूरी तौर पर खामोश किया जा सकता है? गिरफ्तारी आदेश के विरुद्ध किसी याचिका को कानून की अनिवार्य आवश्यकताओं ,जिसके तहत उसे पारित किया गया,के प्रतिकूल होने के आधार पर अथवा दुर्भावना के आधार पर स्वीकार न करना अनुच्छेद 359 की सीमा के बाहर है.

उन्होंने निर्णय दिया कि राष्ट्रपति को भी कानून के शासन को निलंबित करने का अधिकार नहीं है. जस्टिस खन्ना को इस साहसिक निर्णय की कीमत चुकानी पड़ी थी. उनसे जूनियर जस्टिस बेग को आगे चीफ जस्टिस बनाया गया. विरोधस्वरूप जस्टिस खन्ना ने इस्तीफा दे दिया था.

इस बार जनता ने भी ठुकराया

1971 में चुनी लोकसभा का कार्यकाल एक वर्ष के लिए बढ़ाया जा चुका था. लेकिन आगे कब तक इसे खींचा जा सकता था? इमरजेंसी के डर की शुरुआती कामयाबी लुप्त हो चुकी थी. हर तरफ से सरकारी मशीनरी के जुल्म और लूट की शिकायतें थीं. इंदिरा गांधी अपनी नैतिक आभा खो चुकी थीं. एक बार फिर अपनी पुरानी चमक हासिल करने के लिए उन्होंने जनता के बीच जाने का फैसला किया.

ख़ुफ़िया एजेंसियों की रिपोर्टें उन्हें पक्की जीत का हौसला दे रही थीं. संविधान अपने अनुकूल ढाला जा चुका था. जीत तय मानी गयी. 18 जनवरी 1977 को लोकसभा चुनाव के फैसले की घोषणा कर दी गई. तारीख़ें 20-24 मार्च 1977 की थीं. विपक्षियों की रिहाई शुरु की गई. हिसाब लगाया गया था कि उन्नीस महीने जेल में बिता कर निकले नेताओं को सम्भलने का मौका ही नही मिलेगा. पर नाराज वोटर इंदिरा गांधी और उनकी पार्टी को सबक सिखाने को कमर कसे हुए था.

जेपी की कोशिशों से बिखरे विपक्षियों ने चरण सिंह के भारतीय लोकदल का चुनाव निशान हलधर लिया. जनता पार्टी का नाम चुना. जनता ने सिर्फ कांग्रेस को सत्ता से बेदख़ल नही किया. रायबरेली जहां वे 1971 में जीतीं और 1975 में अदालत से हारीं , वहां 1977 जनता ने उन्हें हराया. बाजू की अमेठी लोकसभा सीट पर संजय गांधी भी पराजित हुए. इस चुनाव में पूरे उत्तर भारत से कांग्रेस साफ थी. जनता पार्टी को लोकसभा की 298 सीटें हासिल हुईं .

जनता पार्टी की सरकार अधिक दिन नहीं चली,उसकी अलग कथा है. इंदिरा गांधी ने जल्दी ही 1980 में सत्ता में वापसी की. लेकिन इमरजेंसी के कलंक ने उनका पीछा कभी नहीं छोड़ा. उनकी विरासत पर नाज़ करने वाली कांग्रेस पार्टी जब कभी संविधान की दुहाई देती है , फौरन ही विरोधी उसे इमरजेंसी का आईना दिखाते हैं. ऐसे मौकों पर पचास साल बाद भी पार्टी बगलें झांकती नज़र आती है.

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