होम नॉलेज दोस्ती भूलकर अमेरिका-ईरान कैसे बन गए दुश्मन? दोनों देश तबाही मचाने पर तुले

दोस्ती भूलकर अमेरिका-ईरान कैसे बन गए दुश्मन? दोनों देश तबाही मचाने पर तुले

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अमेरिकी विमानों ने ईरान के तीन परमाणु संयंत्रों पर एक के बाद एक कई एयर स्ट्राइक कीं.

ईरान पर परमाणु बम बनाने की कोशिश करने का आरोप लगाकर इजराइल ने हमला किया तो यह सबको पता था कि इसके पीछे कहीं न कहीं अमेरिका का हाथ है. यह और भी पुख्ता हो गया, जब अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ईरान पर हमले का आदेश दे दिया और अमेरिकी विमानों ने ईरान के तीन परमाणु संयंत्रों पर एक के बाद एक कई एयर स्ट्राइक कीं. इसके साथ ही पिछले कई दशकों से ईरान और अमेरिका के बीच चला आ रहा तनाव अपने चरम पर पहुंच गया. आइए जान लेते हैं कि अमेरिका और ईरान की दुश्मनी कितनी पुरानी है और यह कैसे और भी गहरी होती गई?

यह ईरान में पहलवी शासनकाल की बात है. ब्रिटेन और अमेरिका के रिश्ते ईरान के साथ काफी अच्छे थे. पहलवी शासक एक तरह से अमेरिका के पिछलग्गू बने हुए थे. इसका असल कारण था ईरान में साल 1900 की शुरुआत में मिला कच्चे तेल का भंडार.

तेल के लिए कराया तख्ता पलट

साल 1953 में लोकतांत्रिक रूप से चुने गए ईरान के प्रधानमंत्री मोहम्मद मोसादेग ने ब्रिटेन की साम्राज्यवादी शक्ति के अधीन ईरान-ब्रिटेन की संयुक्त उपक्रम वाली कंपनी एंग्लो-ईरानी ऑयल कंपनी के राष्ट्रीयकरण का फैसला किया तो तनाव दिखने लगा. साल 1951 में चुने गए मोसादेग ने कंपनी के राष्ट्रीकरण का फैसला किया तो ब्रिटेन की भौंहें तन गईं. इस पर अमेरिका की खुफिया एजेंसी सीआईए के साथ मिल कर ब्रिटेन ने ईरान में तख्तापलट करा दिया और एक बार फिर से पहलवी शासन को शाह के रूप में ईरान की सत्ता पर आसीन करा दिया.

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फोर्डो परमाणु संयत्र पर हमले के दौरान की सैटेलाइट इमेज

अमेरिका ने खुद मुहैया कराया था परमाणु संयंत्र

साल 1957 आते-आते ईरान के शाह ने परमाणु शक्ति हासिल करने की महत्वाकांक्षा जताई तो अमेरिका और उसके दूसरे पश्चिमी सहयोगियों ने ईरान का सहयोग किया. तब ईरान और अमेरिका के बीच परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्वक इस्तेमाल के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर भी किया गया. इसके एक दशक बाद अमेरिका ने ईरान को एक परमाणु संयंत्र उपलब्ध कराया और उसे चलाने के लिए यूरेनियम भी मुहैया कराया. यहां तक सब कुछ ठीक चल रहा था. ईरान और अमेरिका के रिश्ते अपने चरम पर थे और शाह के शासनकाल में ईरान के व्यापार पर पश्चिमी देशों का वर्चस्व साफ दिखाई दे रहा था.

इस्लामी क्रांति के बाद चरम पर पहुंचा तनाव

साल 1978 आते-आते ईरान में शाह के खिलाफ विद्रोह शुरू हो गया और जनवरी 1979 में शाह को देश छोड़कर भागना पड़ा. इसी समय ईरान में इस्लामिक क्रांति के अगुवा इराक में निर्वासित जीवन बिता रहे अयातुल्ला रुहोल्ला खोमेनी ईरान वापस लौट आए. साल 1979 की इस्लामिक क्रांति पूरी तरह सफल रही और खोमेनी की अगुवाई में ईरान में नए शासन की शुरुआत हुई.

खोमेनी ईरान के सुप्रीम लीडर बन गए. वहीं, साल 1980 में ईरान से निर्वासित शाह के कैंसर के इलाज के लिए अमेरिका ने एडमिट कर लिया. इससे नाराज ईरान के छात्र तेहरान में स्थित अमेरिकी दूतावास में घुस गए और 52 अमेरिकियों को 444 दिनों तक बंधक बनाए रखा. इस पर अमेरिका ने ईरान के साथ सभी कूटनीतिक रिश्ते खत्म कर दिए और उस पर कई तरह के प्रतिबंध लगा दिए. उधर, निर्वासन में ही शाह का निधन हो गया.

Iran Nuclear Site Fordow

फोर्दो ईरान की दूसरी सबसे बड़ी न्यूक्लियर साइट है.

ईरान पर हमले में इराक के साथ था अमेरिका

साल 1980 में सद्दाम हुसैन ने ईरान पर हमला किया तो अमेरिका इराक के साथ खड़ा हो गया. इससे ईरान और इराक के बीच तनाव और भी बढ़ गया. हालांकि, आठ सालों तक चले ईरान-इराक युद्ध का कोई नतीजा नहीं निकला. इस युद्ध में इराक ने ईरान के खिलाफ रासायनिक हथियारों तक का इस्तेमाल किया. फिर भी ईरान ने हार नहीं मानी. दोनों देशों के हजारों लोग मारे गए और दोनों की अर्थव्यवस्था भी खराब होती गई. आखिरकार आठ साल बाद साल 1988 में बिना किसी अंजाम तक पहुंचे यह जंग रुकी.

इसी युद्ध के दौरान ही साल 1984 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन ने ईरान को आतंक को प्रायोजित करने वाले देश की संज्ञा दे दी. उसी समय इजराइल ने लेबनान पर हमला किया था और अमेरिका उसके साथ था. इस युद्ध में बेरुत में स्थित एक अमेरिकी बेस पर हुए हमले में 241 अमेरिकी मारे गए. अमेरिका ने इसके लिए ईरान का समर्थन प्राप्त लेबनान के शिया आंदोलनकर्ता हिजबुल्ला को जिम्मेदार ठहराया. हालांकि, बाद में हिज्बुल्ला द्वारा बंधक बनाए गए अमेरिकियों को छुड़ाने के लिए खुद रोनाल्ड रीगन ने ईरान के साथ मिलकर काम किया था. जब यह बात दुनिया के सामने आई तो रीगन का इसे एक बड़ा स्कैंडल तक कहा गया.

अमेरिका ने ईरान का नागरिक विमान उड़ाया

साल 1988 की बात है. ईरान-इराक युद्ध खत्म होने से पहले दोनों देश एक दूसरे पर खाड़ी में सैन्य जहाजों पर हमले कर रहे थे. तभी अमेरिकी नौसेना के एक जहाज ने ईरान की जल सीमा का उल्लंघन करते हुए दुबई जा रहे उसके एक नागरिक विमान आईआर655 को उड़ा दिया. इस विमान में सवार सभी 290 लोग मारे गए. अमेरिका का कहना था कि उससे यह हमला गलती से हुआ है. हालांकि, इसके लिए अमेरिका ने कभी भी औपचारिक रूप से न तो माफी मांगी और न ही इसकी जिम्मेदारी ली. यह अलग बात है कि उसने इस हमले में मारे गए लोगों के परिवारों को 61.8 मिलियन डॉलर मुआवजा दिया था.

ईरान के पावर सेंटर

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बिल क्लिंटन ने कड़े किए प्रतिबंध

अमेरिका जब इराक के पाले में चला गया तो ईरान ने अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए चीन, रूस और उत्तर कोरिया का दामन थाम लिया. उत्तर कोरिया और चीन के सहयोग से ईरान ने मिसाइलें बनानी शुरू कीं. रूस की मदद से ईरान ने परमाणु संयंत्र लगाने शुरू किए. इससे अंकल सैम की नाराजगी और भी बढ़ती गई और साल 1995-96 में अमेरिका ने ईरान पर प्रतिबंध और भी कड़े कर दिए. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने कार्यकारी आदेश जारी कर सभी अमेरिकी कंपनियों पर ईरान के साथ डील करने पर प्रतिबंध लगा दिया.

साल 2002 में जब अमेरिका पर 9/11 को हमला हुआ तो तत्कालीन प्रधानमंत्री जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने एक बयान में कहा कि इराक और उत्तर कोरिया के साथ ही ईरान भी दैत्यों की धुरी है. यह और बात है कि उसी समय पर्दे के पीछे रहकर ईरान अफगानिस्तान में तालिबान और अलकायदा के खात्मे में अमेरिका की मदद कर रहा था. अमेरिकी राष्ट्रपति के बयान के बाद दोनों देशों के रिश्तों में कड़वाहट आ गई. साल 2022 खत्म होते-होते कहा जाने लगा कि ईरान ने उच्च परिष्कृत यूरेनियम हासिल कर लिया है, जिससे उस पर और भी प्रतिबंध थोप दिए गए.

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अयातुल्ला अली खामेनेई.

ओबामा ने हालात सुधारे, ट्रंप ने फिर बिगाड़े

साल 2013 से 2015 के बीच अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने ईरान के साथ एक उच्चस्तरीय वार्ता शुरू की. साल 2015 में ईरान इस बात पर सहमत हो गया कि प्रतिबंधों में राहत के बगले ईरान अपनी परमाणु गतिविधियों को सीमित करेगा. इस डील में चीन, रूस, फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन और यूरोपीय यूनियन भी पार्टी थे, जिसमें ईरान के यूरेनियम की गुणवत्ता 3.67 फीसदी तक रखनी थी. राष्ट्रपति बनने के बाद डोनाल्ड ट्रंप ने साल 2018 में ओबामा के कार्यकाल में हुई इस डील से कदम पीछे खींच लिए और ईरान पर ताजा प्रतिबंध लगा दिए.

इस पर ईरान ने भी अपनी प्रतिबद्धता को दरकिनार कर डील के तय मानकों से कहीं ज्यादा उच्च गुणवत्ता वाले यूरेनियम का उत्पादन शुरू कर दिया. इसी साल मार्च (मार्च 2025) में ट्रंप ने ईरान के वर्तमान सुप्रीम लीडर अयातुल्ला अली खामनेई को एक पत्र लिखकर 60 दिनों के भीतर नई न्यूक्लियर डील का प्रस्ताव रखा, जिसे ईरान ने नकार दिया. उनका कहना था कि अमेरिका ईरान के साथ वार्ता का इच्छुक नहीं है, बल्कि वह अपनी मांगें थोप रहा है. हालांकि अनौपचारिक तौर पर मस्कट की मध्यस्थता में ओमान और इटली में वार्ता शुरू हुई और ट्रंप ने दावा किया कि कई दौर की वार्ता के बाद उनकी टीम डील के काफी करीब है और इजराइल को ईरान पर किसी भी तरह के हमले के खिलाफ चेताया भी.

इन सबके बावजूद अमेरिका-ईरान के बीच छठवें दौर की वार्ता शुरू होने से ठीक एक दिन पहले इजराइल ने ईरान पर हमला कर दिया. इसके बाद अमेरिका ने भी इजराइल के बचाव में ईरान के परमाणु संयंत्रों पर भारी बमबारी की.

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