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ईरान और मुगलों के बीच कितनी जंग हुईं, कौन जीता-कौन हारा?

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ईरान (फारस) और मुगलों के बीच जंग का पुराना इतिहास है.

ईरान और इजराइल के बीच चल रहे युद्ध में अब अमेरिका भी कूद पड़ा है. अमेरिका ने ईरान पर एयरस्ट्राइक की है, जिसके बाद अब इस युद्ध में रूस के भी कूदने की आशंका बलवती हो रही है. हालांकि, रूस पहले से ही यूक्रेन के साथ युद्ध लड़ रहा है. यह वही ईरान है, जिसके संबंध आज भले ही भारत के साथ दोस्ताना माने जा रहे हैं पर मुगलों के शासनकाल में ईरान के शासकों की हिन्दुस्तान से ठनी रहती थी. आइए जान लेते हैं कि मुगलों और ईरान की कितनी जंग हुई और क्या थी कहानी, कौन जीता और कौन हारा?

वास्तव में हिन्दुस्तान पर मुगलों के शासनकाल के समय फारस (पर्शिया) यानी ईरान में सफाविद साम्राज्य का शासन था. यह शासन काफी लंबा साल 1501 से 1736 ईस्वी तक चला.

बाबर चाहता था समरकंद पर कब्जा

अफगानिस्तान के कंधार पर कब्जे के लिए मुगल शासक बाबर से लेकर शाहजहां तक ने कई बार पर्शिया से लड़ाइयां लड़ीं. दरअसल, हिन्दुस्तान का रुख करने से पहले बाबर समरकंद पर कब्जा करना चाहता था. समरकंद तत्कालीन समय में शायबक खान उज़्बेक के अधीन आता था. तब बाबर ने कई बार समरकंद जीतने की कोशिश की पर नाकाम ही रहा. इसी बीच शायबक उज़्बेक को शाह इस्माइल सफवी के सैनिकों ने मार गिराया तो बाबर ने शाह सफवी के साथ गठबंधन कर लिया.

Babur

बाबर ने हिन्दुस्तान में मुगल साम्राज्य की नींव रखी थीं.

उस दौर में बाबर को सफवी की ओर से सैन्य सहायता भी दी गई पर सांप्रदायिक कारणों से इनके बीच का गठबंधन टूट गया और समरकंद जीतने की बाबर की ख्वाहिश अधूरी ही रह गई. इसके बाद बाबर ने हिन्दुस्तान का रुख कर लिया और 1526 ईस्वी में सुल्तान लोदी को हराया और हिन्दुस्तान में मुगल साम्राज्य स्थापित किया.

पर्शिया के शासक ने की थी हुमायूं की मदद

बाबर की मौत के बाद उसका बेटा हुमायूं साल 1530 में हिन्दुस्तान की गद्दी पर बैठा. उधर पर्शिया में इस्माइल सफवी के स्थान पर उसके बेटे शाह तहमास प्रथम ने सत्ता संभाल ली थी. अपने शासन के कुछ ही सालों बाद हुमायूं को शेर शाह सूरी ने हरा दिया तो वह भाग कर पर्शिया चला गया, जहां 15 साल रहा. वहीं के शासक की मदद से साल 1555 में हुमायूं को फिर से हिन्दुस्तान की गद्दी मिली. हालांकि, तब हुमायूं ने शाह तहमास को कंधार का इलाका देने का वादा किया था पर दिल्ली की सत्ता दोबारा मिलने के बाद हुमायूं अपने वादे से मुकर गया था.

कंधार पर्शिया का हुआ पर फिर मुगलों ने जीत लिया

हुमायूं के मरने के बाद साल 1556 में अकबर ने बेहद कम उम्र में दिल्ली की सत्ता संभाली तो एक बार फिर से कंधार का मामला उठा. हालांकि, साल 1558 में पर्शिया ने कंधार पर कब्जा कर लिया. फारस का हो गया. हालांकि, इतिहासकार इसके विपरीत दो कहानी बताते हैं. कुछ इतिहासकारों का कहना है कि शाह तहमास ने अपनी सेना भेज कर कंधार पर कब्जा किया था तो कुछ इतिहासकारों का मानना है कि हुमायूं के वादे को पूरा करने के लिए अकबर ने पर्शिया को कंधार सौंपा था. हालांकि, कंधार अधिक दिनों तक पर्शिया के कब्जे में नहीं रहा और अकबर ने साल 1595 में एक बार फिर से कंधार जीत लिया.

जहांगीर के हाथ से निकल गया कंधार

साल 1622-23 में जहांगीर के शासनकाल में एक बार फिर से कंधार पर कब्जे को लेकर मुगलों और पर्शिया शासक के बीच युद्ध हुआ. जहांगीर ने तब अपने बेटे शाहजहां को पर्शिया का सामना करने के लिए कहा पर उसने बगावत कर दी और जहांगीर के सामने कई शर्तें रख दीं. जहांगीर ने खुर्रम को कंधार की रक्षा के लिए कहा तो उसने भी टाल दिया. ऐसे में कंधार पर पर्शिया का कब्जा हो गया जो जहांगीर के जिंदा रहते फिर मुगल शासन का हिस्सा नहीं बन पाया.

Shah Jahan

शाहजहां के शासन के दौरान भी मुगल सेना और फारस (अब ईरान) के बीच जंग हुई.

शाहजहां के शासनकाल में भी फिसल गया

शाहजहां के शासनकाल में साल 1638 में एक बार फिर से मुगलों और पर्शिया की सेनाएं आमने-सामने आ गईं. इस युद्ध में मुगलों ने बाजी मारी और कंधार पर फिर से कब्जा कर लिया. साल 1649 से 1653 के बीच एक बार फिर से मुगल और पर्शिया के सफविद आमने-सामने आए और पर्शिया का कंधार पर कब्जा हो गया. इसके बाद से पर्शिया का ही कंधार पर कब्जा रहा और बादशाह बनने पर औरंगजेब ने कभी इसका रुख ही नहीं किया.

नादिरशाह ने दिल्ली में मचाया कत्ल-ए-आम, लूटपाट की

अंतिम मजबूत मुगल शासक औरंगजेब के निधन के बाद एक बार फिर से पर्शिया के शासक ने हिन्दुस्तान का रुख किया. दरअसल, पर्शिया में अपना शासन मजबूत करने के बाद नादिरशाह ने साल 1738 में अफगानिस्तान पर हमला किया और खैबर दर्रे से होकर हिन्दुस्तान की ओर बढ़ा. फरवरी 1739 में तत्कालीन मुगल शासक मुहम्मद शाह रंगीला और पर्शिया के नादिरशाह के बीच करनाल में युद्ध हुआ, जिसमें रंगीला की बुरी तरह से हार हुई.

Nadir Shah

नादिर शाह ने दिल्ली में कत्लेआम मचाया और कोहिनूर लेकर लौटा.

बताया जाता है कि केवल 50 हजार सैनिकों के साथ नादिरशाह ने इस युद्ध में तीन लाख सैनिकों वाली मुगल सेना को तीन ही घंटे में हरा दिया था, क्योंकि मुगल सेना में समन्वय का अभाव था. इसके बाद दिल्ली पहुंचे नादिरशाह के सैनिकों ने कत्ल-ए-आम कर दिया. खूब लूटपाट मचाई. तख्त ए ताउस और कोहिनूर से लेकर भारी मात्रा में संपत्ति लूट ली तो बादशाह रंगीला ने भी कत्ल-ए-आम रोकने के लिए अपनी ओर से उसे भारी मात्रा में संपत्ति दी. इसके बाद नादिरशाह लौट गया.

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