होम नॉलेज शाहजहां ने अष्टविनायक मंदिर में क्यों कराई थी अपने लिए पूजा, कौन लेकर गया था वहां?

शाहजहां ने अष्टविनायक मंदिर में क्यों कराई थी अपने लिए पूजा, कौन लेकर गया था वहां?

द्वारा

शाहजहां के लिए जुन्नार के अष्टविनायक गणेश मंदिर में प्रवेश शुभ साबित हुआ था.

बादशाह जहांगीर से बगावत के चलते मुश्किल दौर से गुजर रहे शाहजहां के लिए जुन्नार के अष्टविनायक गणेश मंदिर में प्रवेश मात्र काफी शुभ साबित हुआ. इसके बाद ही खुशखबरियों का सिलसिला शुरू हुआ और मुल्क की बादशाहत का रास्ता साफ हो गया. मंदिर जाते समय शाहजहां हिचक रहा था. मुगल अमीरों की नाराजगी का डर था. लेकिन जब सिर पर ताज सजना तय हो गया तो कोई फ़िक्र नहीं थी.

उसने मंदिर के लिए एक हजार स्वर्ण मुद्राएं भेजीं. पुजारी श्वेतांक पंत को अलग से इतनी ही स्वर्ण मुद्राएं भेंट कीं. उनके ही बताए मुहूर्त पर आगरा के लिए प्रस्थान किया. बेटी जहांआरा जो पिता को मंदिर लेकर गई थी, उसने मंदिर के लिए चांदी के छत्र की धनराशि अलग से भेजी.

मंदिर क्यों पहुंचा था बादशाह शाहजहां?

मुगल बादशाहों की कट्टरता और हिन्दू मंदिरों-मूर्तियों के ध्वंस के फरमानों के बीच उनके द्वारा मंदिरों की सहायता-सौगातों के छिट-पुट दृष्टांत भी मिलते हैं. बेशक इनकी विश्वसनीयता पर सवाल उठते रहे हैं. लेकिन अपनी रीति-नीति से जुदा रास्ते पर किन हालात में बादशाह ऐसी उदारता दिखाते थे, इसकी एक झलक शाहजहां द्वारा जुन्नार के अष्टविनायक मंदिर और पुजारी को दी गई भेंट से पता चलता है.

Junnar Ashtavinayak Temple Facts

शाहजहां ने मंदिर के लिए एक हजार स्वर्ण मुद्राएं और जहांआरा ने चांदी के छत्र का पैसा भेजा था. फोटो: Wikipedia

अपनी बेटी जहांआरा के साथ शाहजहां का इस मंदिर में प्रवेश हुआ था. साथ मौजूद सैयद मुजफ़्फ़र बारहा, ने खुद को पक्का चग़ताई तुर्क बताते हुए इस कुफ्र में शरीक होने से इनकार कर दिया था. शाहजहां को डर था कि उसके इस कदम से सैयद मुजफ़्फ़र बारहा, खिदमत परस्त ख़ां और महाबत ख़ां नाराज न हो जाएं.

पिता बादशाह जहांगीर से नाकामयाब बगावत के बाद उन दिनों शाहजहां निजामशाही के इलाके में शरण लिए हुए था. वो कोई नया खतरा लेने को तैयार नहीं था. लेकिन अपनी बेटी जहांआरा का मन रखने के लिए 15 नवंबर 1627 को वह हिंदू और बौद्ध मंदिरों-गुफाओं को देखने गया था. मुजफ़्फ़र के अलावा अन्य अमीरों ने खुद को उसकी इस यात्रा से अलग रखा था.

कम उम्र में ही जहांआरा ने खूब पढ़ा

शाहजहां की सबसे बड़ी संतान जहांआरा उस वक्त सिर्फ तेरह साल की थी. लेकिन तब तक वह काफी कुछ पढ़-समझ चुकी थी. पिता से उसने सवाल किया कि क्या वे ” सुलह-ए-कुल” और “तौहीद-ए-इलाही” पर भरोसा करते हैं? शाहजहां ने जवाबी सवाल किया कि क्या सूफीवाद के बारे में जानती हो? हां, के जवाब पर बेटी को अल ग़ज़ाली को पढ़ने की सलाह दी. जहांआरा ने कट्टर ग़ज़ाली के साथ उदार राबिया के लेखन का भी हवाला दिया.

पिता से कहा कि अगर आप तैयार हों तो दूसरे मजहबों और उनकी तहज़ीब को जानने के लिए उससे जुड़ी चीजें दिखाऊं. शाहजहां अपनी बेटी की जानकारियों से हैरत भी करता था और मुग्ध भी होता था. पूछा कहां चलना होगा? जहांआरा ने बताया यहीं जुन्नार में दूसरे मजहब की बहुत सी गुफाएं हैं, जहां उनसे जुड़ी तमाम जानकारियां हासिल हो सकती है. हिचक थी लेकिन शाहजहां ने बेटी का मन रखने का फैसला किया.

Ashtavinayak Temple Shah Jahan Connection

15 नवंबर, 1627 की सुबह जुन्नार के पास पहाड़ियों पर बनी गुफाओं को देखने के लिए शाही मुगल परिवार रवाना हुआ था. फोटो: Wikipedia

शिल्पकारों के हुनर का हुआ कायल

जहांआरा के रोजनामचे के मुताबिक 15 नवंबर 1627 की सुबह जुन्नार के निकट की चार पहाड़ियों पर बनी तकरीबन दो सौ गुफाओं को देखने के लिए शाही परिवार रवाना हुआ था. सैनिकों के अलावा दो-तीन मुगल आलिम और दो चितपावन ब्राह्मण पुरोहित भी साथ थे. जहांआरा अपने रोजनामचे में उन गुफाओं के ब्यौरे दर्ज करते हुए रेखाचित्र भी बना रही थी. शाहजहां कठिन स्थानों पर शिल्पकारों के किए शानदार निर्माण के लिए उनके हुनर की दाद दे रहा था.

वापसी की तैयारी के समय एक पुजारी ने शाहजहां से नजदीक की एक और पहाड़ी पर चलने का अनुरोध किया. जुन्नार से तीन मील उत्तर लेनयाद्री पहाड़ी पर हुए निर्माण स्थापत्य के उत्कृष्ट नमूने थे. जहांआरा ने अनेक मौकों पर पिता को मजहबी नजरिए से कट्टर पाया था लेकिन स्थापत्य और शिल्प के प्रति उनके आकर्षण से वाक़िफ थी. इसी बहाने वो दूसरे मजहबों के प्रति पिता को उदार होने के लिए प्रेरित करना चाहती थी.

Ashtavinayak Temple Junnar Mughal Connection

शाहजहां को मंदिर और गुफाओं की स्थापत्य कला पसंद आई थी. फोटो: Wikipedia

हे बादशाह का वो संबोधन !

लेनयाद्री पहाड़ी की तीस गुफाओं में एक छोड़कर सभी बौद्ध धर्म से संबंधित थीं. प्रोफ़ेसर हेरंब चतुर्वेदी की किताब “जहांआरा” के अनुसार वहां मौजूद एक युवा पुजारी ने सात नंबर की इस गुफा के विषय में बताया कि यह सर्वप्रथम पूजित गणेश की है. ये सामान्य गणेश न होकर पूरे क्षेत्र में अष्टविनायक (आठ प्रसिद्ध) गणेश मंदिरों में एक है. हम इन्हें विघ्नहर्ता मानते हैं और इनके पूजन से सब बाधाएं दूर होती हैं. आपने अनजाने में ही अपनी बाधाओं को पार कर लिया है …हे बादशाह !” शाहजहां ने खुद को बादशाह संबोधित किए जाने पर उस पुजारी को टोका. कुछ मौन बाद आगे बोलने की इजाजत मांगते हुए पुजारी ने कहा, “आप अपने आप यहां नहीं आए हैं. आपको तो आपकी बेटी ने प्रेरित किया. फिर आप थकने लगे थे. वापस जाना चाह रहे थे. फिर बेटी ने जिद की और आप यहां तक आ गए.

बेटी के चेहरे पर अध्यात्म की चमक है. इसलिए इसे अंतःकरण से प्रेरणा मिली और आप सब दर्शन में सफल हुए. इस मंदिर में मुझे अंतः प्रेरणा मिली और अनायास “बादशाह” कह गया. हमारी आस्था कहती है कि आपकी प्रार्थना मंजूर होगी. यहां आने वाले के मार्ग के सभी कांटे हमारे देव दूर कर देते हैं. आपकी इच्छा जरूर पूरी होगी. “

और अगले दिन से बादशाहत का रास्ता साफ!

अनजाने में ही बादशाह पुकारे जाने से उत्साहित शाहजहां की वो रात बहुत चैन से गुजरी. अगले ही दिन एक दूत के जरिए उसे बादशाह जहांगीर की सांस की बीमारी उभरने और किसी दवा के असर न होने का संदेश मिला. फौरन ही शाहजहां को अष्टविनायक मंदिर के ब्राह्मण पुजारी श्वेतांक पंत का ख्याल आया. तुरंत ही पुजारी को एक थैली अशर्फी भेजते हुए शाहजहां ने अगले दिन मंदिर में अपने लिए इबादत कराने को कहा.

जहांआरा ने खास इबादत के लिए कुछ रकम अलग से भेजी. दो दिन के अंतराल पर जहांगीर का शत्रु महाबत ख़ां दो हजार घुड़सवारों के साथ शाहजहां से आ मिला. महाबत के साथ शाहजहां के ससुर आसफ खां का दूत बनारसी भी था, जिसने बताया कि बादशाह जहांगीर की 9 अक्टूबर 1927 को मौत हो चुकी है. उन दिनों संदेशों का आदान- प्रदान दूतों के जरिए ही होता था. परिवहन के लिए घोड़ों और बैलगाड़ी आदि का सहारा था. एक से दूसरी जगह पहुंचने में खासा वक्त लगता था. शाहजहां को चालीस दिन बाद जहांगीर की मौत की जानकारी मिल सकी थी .

Junnar Ashtavinayak Temple

बादशाह बनने से पहले ही शाहजहां ने पुजारी श्वेताक पंत को शाही वस्त्र और एक हजार स्वर्ण मुद्राएं भेजी थीं.

फिर आई मंदिर और पुजारी की याद

असफल बगावत के बाद शाहजहां को जहांगीर ने माफ़ कर दिया था. लेकिन असलियत में बाप-बेटे में दूरियां काफी बढ़ चुकी थी. फिर भी उसने बाप की मौत की खबर मिलने पर गमगीन होने का दिखावा किया और गम का समय बीत जाने के बाद ही आगरा के लिए निकलने की बात कही. भीतर की बात दूसरी थी.

बादशाहत के लिए उसका रास्ता आसान हो चुका था. चूंकि अपने दिन फिरने की खबरें उसे अष्टविनायक मंदिर में जाने और पुजारी द्वारा बादशाह पुकारे जाने के बाद ही मिलनी शुरू हुईं थीं, इसलिए उसका ध्यान एक बार फिर मंदिर और पुजारी की ओर गया. गद्दी पर बैठने के पहले ही पुजारी श्वेताक पंत को शाही वस्त्र और एक हजार स्वर्ण मुद्राओं की उसने भेंट भेजी.

मंदिर के लिए अलग से एक हजार स्वर्ण मुद्राएं उसने और जहांआरा ने चांदी के छत्र का पैसा भेजा. मंगलवार 20 नवंबर को श्वेतांक ग्यारह ब्राह्मणों,पुरोहितों और ज्योतिषियों के साथ शाहजहां के पास पहुंचा और बृहस्पतिवार को दो पहर बीत जाने के बाद उसे जुन्नार छोड़ने और आगरा प्रस्थान की सलाह दी. शाहजहां को उन पर इतना विश्वास हो गया था कि बताए मुहूर्त पर ही वो आगरा के लिए निकला. उसकी ताजपोशी अब नजदीक थी.

यह भी पढ़ें: कौन था सबसे पढ़ा-लिखा मुगल बादशाह, क्या पढ़ाई के लिए विदेश जाते थे शहजादे?

आपको यह भी पसंद आ सकता हैं

एक टिप्पणी छोड़ें

संस्कृति, राजनीति और गाँवो की

सच्ची आवाज़

© कॉपीराइट 2025 – सभी अधिकार सुरक्षित। डिजाइन और मगध संदेश द्वारा विकसित किया गया