कर्नाटक कैबिनेट ने फैसला लिया है कि वो राज्य चुनाव आयोग से निकाय चुनावों में ईवीएम के बजाय बैलेट पेपर से मतदान कराने की सिफारिश करेगा.
कांग्रेस के वोट चोरी के आरोपों के बीच कर्नाटक की सरकार ने घोषणा की है कि वह राज्य में ईवीएम के बजाय बैलेट पेपर से चुनाव की सिफारिश करेगी. कर्नाटक मंत्रिमंडल ने फैसला लिया है कि राज्य में होने वाले पंचायत और स्थानीय निकाय चुनाव में बैलेट पेपर से चुनाव कराने की सिफारिश चुनाव आयोग से की जाएगी.
आइए जान लेते हैं कि क्या है भारत निर्वाचन आयोग (ECI) और राज्य चुनाव आयोग में अंतर? इन पर सरकार का कितना नियंत्रण होता है और सरकार क्या आदेश इनको दे सकती है.
राज्य चुनाव आयोग और भारत निर्वाचन आयोग में क्या है अंतर?
भारत निर्वाचन आयोग की स्थापना 25 जनवरी 1950 को की गई थी. यह भारतीय संविधान द्वारा स्थापित एक स्वायत्त संस्था है, जो देश में चुनाव कराती है. भारतीय संविधान के आर्टिकल 324 के तहत भारत निर्वाचन आयोजन के पास इस बात का अधिकार होता है कि वह आम चुनाव, राज्य विधानसभा के चुनाव, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव के लिए दिशानिर्देश दे और इनकी निगरानी करे.
भारत निर्वाचन आयोग केंद्र और राज्य सरकार दोनों को सेवाएं देता है. इसका मुखिया मुख्य निर्वाचन आयुक्त होता है जिनकी नियुक्ति केंद्र सरकार की सिफारिश पर राष्ट्रपति करते हैं. भारतीय निर्वाचन आयोग के निर्देश पर ही राज्यों के चुनाव आयोग काम करते हैं.

भारत निर्वाचन आयोग केंद्र और राज्य सरकार दोनों को सेवाएं देता है.
राज्य चुनाव आयोग की स्थापना राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में एक स्वतंत्र संवैधानिक संस्थान के रूप में की गई है, जिससे निष्पक्ष चुनाव कराए जा सकें. राज्य निर्वाचन आयोग के अधिकार भी भारतीय संविधान के आर्टिकल 324 के प्रावधानों से सुरक्षित किए गए हैं.
शहरी स्थानीय निकायों जैसे नगर निगम, नगर पालिका, पंचायत और भारतीय निर्वाचन आयोग द्वारा तय किए गए किसी अन्य चुनाव को कराने का जिम्मा राज्य चुनाव आयोग के कंधों पर ही होता है. राज्य चुनाव आयोग का मुखिया मुख्य चुनाव अधिकारी होता है, जिसकी नियुक्ति संबंधित राज्य के राज्यपाल करते हैं.

कर्नाटक में बैलेट पेपर से निकाय चुनाव कराने की मांग.
चुनाव आयोग पर सरकारों का कितना नियंत्रण?
चुनाव आयोग के गठन के समय ही संविधान सभा ने इसकी भूमिका और शक्तियों पर विस्तार से विचार-विमर्श किया था. संविधान सभा में बहस के दौरान डॉ. बीआर अंबेडकर ने 15 जून 1949 को कहा था कि मुख्य चुनाव आयुक्त को सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश की तरह का संरक्षण मिलना चाहिए जिससे चुनाव से जुड़े किसी भी मामले में कार्यकारी सरकार का किसी तरह का कोई दबाव न हो. इसी दौरान कर्मचारियों की नियुक्ति पर भी चर्चा हुई, तब डॉ. अंबेडकर ने चुनाव आयोग के लिए किसी तरह की स्थायी नौकरशाही की व्यवस्था करने का विरोध किया था.
डॉ. अंबेडकर का तर्क था कि चुनाव आयोग के लिए अफसरों-कर्मचारियों की व्यवस्था करना महंगा और गैर जरूरी होगा, क्योंकि चुनाव का काम कभी ज्यादा होता है और कभी बिल्कुल नहीं होता. उन्होंने कहा था कि इसके बजाय आयोग राज्य सरकारों से चुनाव के लिए अधिकारी उधार ले सकता है. ये उधार लिए गए अफसर अपनी प्रतिनियुक्ति के दौरान केवल आयोग के प्रति जवाबदेह होंगे. यानी संविधान निर्माताओं ने ऐसे चुनाव आयोग की कल्पना की, जिसके पास अपना कोई स्थायी स्टाफ न हो. इसके बजाय चुनाव के दौरान उसके अधीन तैनात अफसरों-कर्मचारियों पर उसका पूरा अधिकार हो. यही व्यवस्था तब से चली आ रही है.
चुनाव को लेकर सभी फैसले चुनाव आयोग खुद करता है और चुनाव की घोषणा के बाद आचार संहिता लागू होने के साथ ही सारी सरकारी मशीनरी चुनाव आयोग के अधीन हो जाती है. इस तरह से भारत निर्वाचन आयोग या राज्य चुनाव आयोग पर किसी सरकार का कोई अधिकार नहीं होता. सरकारें आयोग से अपील कर सकती हैं पर उन्हें किसी तरह का आदेश नहीं दे सकती हैं.
अगर राज्य चुनाव आयोग ने सरकार की बात नहीं मानी तो क्या होगा?
साल 1988 में भारतीय संसद ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियमों (1950 और 1951) में संशोधन किया. इसके तहत संविधान निर्माताओं की कल्पना को औपचारिक रूप दिया गया. धारा 13सीसी और 28ए के तहत राज्यों के मुख्य निर्वाचन अधिकारी से लेकर मतदान अफसरों, चुनाव ड्यूटी पर लगे पुलिसकर्मियों तक को चुनाव के दौरान प्रतिनियुक्ति पर आयोग के अधीन माना जाता है और इस दौरान ये सभी आयोग के नियंत्रण, अधीक्षण और अनुशासन के अधीन रहते हैं.
ऐसे में कोई भी चुनाव आयोग किसी सरकार की बात मानने के लिए बाध्य नहीं है. सरकारों की ओर से दिए गए सुझावों पर चुनाव आयोग विचार कर सकता है और सही लगने पर कोई बात मान भी सकता है. अगर सरकारों को यह लगता है कि चुनाव आयोग किसी मुद्दे पर कोई नियम तोड़ रहा है या मनमानी कर रहा है तो वे कोर्ट की शरण में जा सकती हैं.
क्या विधानसभा में जारी रहेगा बैलेट पेपर का फॉर्मूला?
अब सवाल उठता है कि अगर कर्नाटक में बैलेट पेपर से निकाय चुनाव होते हैं तो क्या विधानसभा चुनाव में भी ईवीएम की जगह बैलेट पेपर से मतदान होगा? इसका जवाब है कि राज्य चुनाव आयोग ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं है. राज्य चुनाव आयोग हालातों के मुताबिक निर्णय लेता है और वो अपना फैसला लागू करने के लिए स्वतंत्र है. इसलिए अगर निकाय चुनाव बैलेट पेपर से हो भी जाते हैं तो भी यह जरूरी नहीं है कि कर्नाटक में विधानसभा चुनाव भी इसी फॉर्मूले पर होंगे.
कब-कब ECI राज्य चुनाव आयोग को निर्देश दे सकता है?
भारत निर्वाचन आयोग और राज्य चुनाव का गठन संविधान के एक ही आर्टिकल के तहत किया गया है और राज्य चुनाव आयोग भारत निर्वाचन आयोग के दिशानिर्देशों पर ही काम करते हैं. इसलिए राज्य चुनाव आयोग को भारत निर्वाचन आयोग का आदेश मानना अनिवार्य होता है. एक तरह से हम कह सकते हैं कि राज्य चुनाव आयोग का काम ही भारत निर्वाचन आयोग के निर्देश-आदेश मानना और उसकी सहायता करना है.
यह भी पढ़ें: रैली दंगे में बदली, फिर हुआ कत्लेआम,पढ़ें द बंगाल फाइल्स की असली कहानी