डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने सोवियत संघ जाने के लिए शर्त रखी थी.
Dr Sarvapalli Radhakrishnan: भारतीय सभ्यता-संस्कृति को मृत बताने की पश्चिमी विचारकों की अवधारणा को सबल तरीके से निर्मूल सिद्ध करने का डॉक्टर एस.राधाकृष्णन को यश प्राप्त है. कलकत्ता में नौकरी के दौरान उन्होंने अनुभव किया कि जीवन का उद्देश्य मात्र भरण-पोषण नहीं होना चाहिए. उस समय तक किसी शिक्षण संस्था में भारतीय दर्शन विषय के रूप में नहीं पढ़ाया जाता था. भारतीय चिंतन संपदा के सिर्फ ग्रंथों तक सीमित रहने को उन्होंने निरर्थक माना.
उन्होंने कहा कि जब भारतीय ही अपने श्रेष्ठ चिंतन और परम्पराओं से अनजान हैं, तो बाकी दुनिया उसे कैसे जानेगी? जानकारी के इस अभाव के कारण ही पाश्चात्य चिंतकों ने भारतीय सभ्यता को मृत और कर्मकांडो तक सीमित मान लिया. उनके भ्रम और मिथ्या धारणा का सकारात्मक प्रतिवाद आवश्यक था.
अगले छह वर्षों तक राधाकृष्णन ने भारतीय दर्शन की बारीकियों का गहन अध्ययन किया. 1923 में उनके शोध का प्रथम खंड ” इंडियन फिलॉस्फी” नाम से प्रकाशित हुआ. 1927 में दूसरे खंड का प्रकाशन हुआ. राधाकृष्णन ने बताया कि भारतीय चिंतन परंपरा समूची मानव जाति का मार्ग दर्शन करने वाली सम्पूर्ण चिंतन पद्धति है. यदि विश्व इसे अपना ले तो मानव जाति की प्रत्येक समस्या का समाधान और रक्तपात से मुक्ति संभव है.
ईसाई मिशनरियों की सोच का विरोध
राधाकृष्णन को प्रारंभिक शिक्षा तिरुुपति के लुथर्न मिशनरी स्कूल में प्राप्त हुई. इसके बाद बेल्लूर और फिर मद्रास के क्रिश्चन कॉलेज में उन्होंने पढ़ाई की. इस बीच उन्हें बाइबिल भी कंठस्थ हो गई. मिशनरी स्कूल में उन्हें इस कारण छात्रवृत्ति भी प्राप्त हुई. इन शिक्षण संस्थाओं ने उन पर अपना प्रभाव छोड़ा. लेकिन उन्होंने अनुभव किया कि वे लोग हिंदू धर्म और उसके विचारों-परम्पराओं को हेय दृष्टि से देखते हैं.
राधाकृष्णन ने इसे चुनौती के रूप में लिया और हिन्दू शास्त्रों, पौराणिक ग्रंथों, उपनिषदों आदि का गहन अध्ययन -मनन किया. उन्होंने भारतीय सभ्यता-संस्कृति को अत्यन्त समृद्ध और चैतन्य पाया. यह ऐसी संस्कृति है जो धर्म के उच्च आदर्शों, श्रेष्ठ परम्पराओं और उदात्त मानवीय मूल्यों पर आश्रित है और वह प्राणि मात्र को सत्य के मार्ग पर चलते हुए जीवन के सदुपयोग की सीख देती है.

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन फोटो: Getty Images
हिंदू जीवन पद्धति पर भाषणों ने पश्चिमी जगत को किया मुग्ध
विलक्षण योग्यता के बाद भी प्रारंभिक वर्षों में राधाकृष्णन को नौकरियां हासिल करने के लिए संघर्ष करना पड़ा. मद्रास,बंगलौर और कलकत्ता के कॉलेजों में उनके शिक्षण की श्रेष्ठता से विद्यार्थी ही नहीं अपितु शिक्षक और अन्य विद्वत समाज भी प्रभावित हुआ. 1926 वह साल था, जब उनकी कीर्ति विदेशों में भी फैली. ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन देशों की ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में संपन्न एक कांफ्रेंस में उन्हें हिंदू जीवन पद्धति पर चार भाषण देने का अवसर प्राप्त हुआ. उनके हर भाषण में श्रोता मंत्रमुग्ध रहे.
इन भाषणों में राधाकृष्णन ने कहा कि हिंदू धर्म कर्मफल के सिद्धांत को मानता है. यह धर्म बताता है कि कर्म के अनुरूप फल प्राप्त होंगे. परिणामस्वरूप मनुष्य बुरे कर्म से बचता है. संसार को हिंदू धर्म माया मानता है अर्थात नश्वरता का संदेश देता है. आत्मा को अमर बताता है और वेदांत ने आत्मा को परमात्मा का अंश बताया.
जीवन को चार आश्रमों में वितरित करते हुए जीवन पद्धति निश्चित की. स्त्री-पुरुष की ऐसी गुंथी भूमिका तय की , जिससे आप काम करते हुए दोनों ही गर्व का अनुभव करें. इन भाषणों ने राधाकृष्णन को अपार लोकप्रियता प्रदान की. मैनचेस्टर कॉलेज के प्रिंसिपल मिस्टर जेकन ने तो खुद को हिंदू कहना शुरू कर दिया. ब्रिटेन के एक व्यवसायी गोर्डन सेल्फेरीज ने इन विचारों को आचरण में उतारना शुरू कर दिया.

पंडित नेहरू ने डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की काबिलियत से प्रभावित होकर उन्हें सोवियत संघ के लिए राजदूत नियुक्त किया. फोटो: Getty Images
स्टालिन हुए मुरीद
लंदन यात्रा के बाद राधाकृष्णन की ख्याति बढ़ती गई. भारत वर्ष में ही नहीं दूसरे देशों के विश्वविद्यालयों में उनकी उपस्थिति,शिक्षण और व्याख्यान बड़ी उपलब्धि माने जाते थे. एक शिक्षक और दर्शनशास्त्री के जीवन में बड़ा मोड़ बनारस हिंदू विश्विद्यालय के वाइस चांसलर के पद पर रहते हुए आया, जब उनका पंडित नेहरू से संपर्क हुआ. उनकी प्रतिभा से प्रभावित हुए नेहरू ने उन्हें संविधानसभा में सम्मिलित कराया. फिर सोवियत संघ में राजदूत नियुक्त किया.
नेहरू को भरोसा था कि राधाकृष्णन स्टालिन की भारत को लेकर सोच के परिवर्तन और दोनों देशों के बीच रिश्तों की शुरुआत के लिए उपयुक्त व्यक्ति हैं. राधाकृष्णन यह जिम्मेदारी संभालने में हिचक रहे थे. लेकिन उन्होंने एक शर्त रखी कि राजदूत के साथ ही वे ऑक्सफोर्ड में तुलनात्मक धर्म विषय की अपनी प्रोफेसरी जारी रखेंगे. उनकी शर्त मान ली गई.
सोवियत संघ में राजदूत के रूप में राधाकृष्णन का कार्यकाल शानदार रहा. स्टालिन को उन्होंने अपनी प्रतिभा और संवाद शैली से मुग्ध कर दिया. भारत को लेकर स्टालिन के तमाम भ्रम और मिथ्या धारणाओं को दूर करने में सफल रहे. असलियत में भारत-सोवियत संघ के रिश्तों की जो बुनियाद उन्होंने डाली, आने वाले दिनों दोनों देशों की निकटता और परस्पर विश्वास में उसने बड़ी भूमिका निभाई.

सोवियत संघ के राजनेता जोसेफ स्टालिन.
हर भूमिका में सफल
एक शिक्षक के रूप में प्रारंभ उनकी जीवनयात्रा विभिन्न सोपानों से गुजरी. 1952 में वे निर्विरोध उपराष्ट्रपति चुने गए. उपराष्ट्रपति के तौर पर दूसरे कार्यकाल को अनिच्छापूर्वक स्वीकार किया. 1962 में उन्होंने राष्ट्रपति पद संभाला. सिर्फ भारत नहीं अपितु अन्य देश भी सर्वोच्च पद पर एक ऐसे व्यक्ति की नियुक्ति पर अचंभित और उत्साहित हुए थे, जो राजनीति की उपज नहीं था और जिसकी ख्याति एक उत्कृष्ट शिक्षक और दर्शनशास्त्री के तौर पर थी.
राधाकृष्णन जिस भी पद पर रहे, उसकी जिम्मेदारियों के निर्वहन में उनकी निष्ठा असंदिग्ध रही. उनकी विद्वता और गरिमा ने उन पदों का सम्मान बढ़ाया. राष्ट्रपति के रूप में विभिन्न देशों की यात्राओं में भारत के मान-सम्मान में वृद्धि हुई और रिश्तों में नए आयाम जुड़े.

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन (5 सितंबर) को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है. फोटो: Getty Images
शिक्षक रूप में पहचान सबसे ज्यादा प्रिय
डॉक्टर राधाकृष्णन किसी भी पद पर रहे हों, लेकिन एक शिक्षक के रूप में अपनी पहचान उन्हें बहुत प्रिय थी. 1962 से उनके जन्मदिन 5 सितंबर को शिक्षक दिवस के रूप में मनाए जाने की परम्परा का श्रीगणेश हुआ. राष्ट्रपति पद पर उनके कार्यकाल का यह पहला वर्ष था.
उनका कहना था कि जीवन पर्यन्त शिक्षक के रूप में अच्छे विचारों का उन्होंने स्वागत किया और विद्यार्थियों को यही सिखाया. इसलिए उनकी इच्छा थी कि वे शिक्षक के रूप में ही याद किए जाएं. वे चाहते थे कि समाज को शिक्षित-प्रेरित करने वाले शिक्षकों का इस अवसर पर सम्मान किया जाए. इससे शिक्षक अधिक ऊर्जा-उत्साह के साथ शिक्षा के प्रसार के लिए प्रेरित होंगे, जिसका लाभ देश-समाज को प्राप्त होगा.
राष्ट्रपति का उनका कार्यकाल 1967 में समाप्त हुआ. 17 अप्रैल 1975 को उनका निधन हो गया. पर उनके जन्मदिन 5 सितंबर को शिक्षा जगत और उससे जुड़े लोग कभी नहीं भूलते. 1962 से प्रारंभ शिक्षक दिवस की परम्परा अनवरत है. उनका वोट अथवा दलगत राजनीति से कोई संबंध नहीं था. परिवार में भी उनकी विरासत को आगे बढ़ाने वाला कोई राजनेता नहीं था. फिर भी देश आज भी उनका स्मरण करता है, इससे सहज ही उनके योगदान और देशवासियों के मन में उनके प्रति आदर भाव को समझा जा सकता है.
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