होम विदेश क्या चीन खुद को अमेरिका के विकल्प के तौर पर पेश कर रहा है? चाइना डे परेड में हथियारों के साथ मंच पर भी दिखाई ताकत

क्या चीन खुद को अमेरिका के विकल्प के तौर पर पेश कर रहा है? चाइना डे परेड में हथियारों के साथ मंच पर भी दिखाई ताकत

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जब दुनिया के सबसे ताकतवर गैर-पश्चिमी नेता एक ही मंच पर खड़े होते हैं, तो उसका संदेश क्या होता है? 3 सितंबर 2025, की सुबह बीजिंग में चाइना डे परेड हुई. शी जिनपिंग के साथ मंच साझा करते हुए रूस, उत्तर कोरिया, ब्राजील, साउथ अफ्रीका समेत 20 से ज्यादा देशों के प्रमुख एक साथ नजर आए. क्या ये सिर्फ शक्ति प्रदर्शन था या इसके पीछे कोई और बड़ा संदेश छुपा है?

शी जिनपिंग ने कई देशों के प्रमुख नेताओं को एक मंच पर बुलाकर क्या साबित करने की कोशिश की है? क्या चीन वाकई अमेरिका के विकल्प के तौर पर खुद को स्थापित करने की कोशिश कर रहा है? जानेंगे ये पूरी कहानी!

चीन की नई विश्व व्यवस्था की महत्वाकांक्षा

चीन अब सिर्फ आर्थिक महाशक्ति नहीं, बल्कि राजनीतिक और वैचारिक नेतृत्व का दावा भी कर रहा है. शी जिनपिंग ने चाइना डे परेड के मंच से कहा: “हम एक ऐसे भविष्य के लिए काम कर रहे हैं, जिसमें सभी देशों को बराबर का सम्मान और विकास का अधिकार मिले.”

यह बयान सिर्फ घरेलू दर्शकों के लिए नहीं, बल्कि वैश्विक मंच पर अमेरिका के मुकाबले खुद को पेश करने की रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है. BRICS, SCO और Belt and Road Initiative के जरिए चीन ने एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में अपना प्रभाव तेजी से बढ़ाया है. साल 2024 के SCO समिट में शी जिनपिंग ने कहा था: “दुनिया बहुध्रुवीय हो रही है, एक देश का वर्चस्व अब स्वीकार्य नहीं है.” यह सीधा संदेश था अमेरिका के लिए- यानि चीन अब नेतृत्व चाहता है, सिर्फ भागीदारी नहीं.

चाइना डे परेड का संदेश: एकता और शक्ति

चाइना डे परेड में 20 से ज्यादा देशों के नेता एक साथ एक मंच पर बुलाए गए. रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने मंच से कहा: “यह मंच दिखाता है कि पश्चिमी दबाव के बावजूद, हम एकजुट हैं.”

उत्तर कोरिया के किम जोंग उन ने भी कहा: “चीन के नेतृत्व में एशिया की आवाज़ अब और बुलंद होगी.”

US-चीन-ताइवान मामलों के विशेषज्ञ Wen-Ti Sung (Atlantic Council) कहते हैं: “यह परेड चीन की वैश्विक महत्वाकांक्षा का सबसे बड़ा प्रतीक है, जहां सैन्य ताकत के साथ-साथ कूटनीतिक शक्ति का भी प्रदर्शन हुआ है.”

अमेरिका बनाम चीन: नया ग्लोबल मुकाबला

शी जिनपिंग ने हाल ही में पश्चिमी देशों की “बुलिंग पॉलिटिक्स” की आलोचना करते हुए कहा था: “हमें शीत युद्ध की मानसिकता को पीछे छोड़ना होगा और साझेदारी की तरफ आगे बढ़ना होगा.”

कई विशेषज्ञ मानते हैं कि SCO और चाइना डे परेड ने दिखा दिया कि चीन गैर-पश्चिमी देशों को एकजुट करने की ताकत रखता है, जो अमेरिका की एकतरफा व्यवस्था को चुनौती देता है. 2024 में चीन 120 से ज्यादा देशों का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार बन गया. जबकि अमेरिका सिर्फ 80 देशों के साथ है. ये आंकड़े बताते हैं कि चीन का प्रभाव लगातार बढ़ रहा है.

भारत की स्थिति: संतुलन और चुनौतियां

भारत के लिए ये परिस्थिति काफी जटिल है. एक तरफ BRICS और SCO में चीन के साथ मंच साझा करना, दूसरी तरफ सीमा विवाद और QUAD में अमेरिका के साथ साझेदारी.

विदेश मंत्री एस जयशंकर ने कहा था: “भारत किसी भी देश के वर्चस्व को स्वीकार नहीं करता चाहे वो पूर्व का हो या पश्चिम का.”

रणनीतिक मामलों के विशेषज्ञ Harsh Pant (ORF) का मानना है: “भारत को अपनी स्वतंत्र विदेश नीति को और मजबूत करना होगा, ताकि वह दोनों ध्रुवों के बीच संतुलन बनाए रख सके.”

2030 तक चीन की अर्थव्यवस्था अमेरिका के बराबर हो सकती है. BRICS का विस्तार हो रहा है, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में चीनी निवेश तेज हो रहा है. लेकिन सवाल है क्या ये नेतृत्व सभी को स्वीकार्य होगा या फिर ये एक नया वर्चस्व खड़ा करेगा?

दरअसल, डोनाल्ड ट्रंप की वजह से ही इन दिनों चीन का कद बढ़ा है, चीन दुनिया की दूसरी बड़ी आर्थिक शक्ति है, ट्रंप की वजह से ही भारत ने भी चीन से रिश्ते सुधारे हैं. हालांकि, अभी बहुत सारी ऐसी अड़चनें भी हैं, जो चीन को विश्व राजनीति का दूसरा ध्रुव मानने में रुकावट पैदा करती हैं. मगर ये बात ज़रूर मानी जा रही है कि आर्थिक-सामरिक नजरिये से अमेरिका के बाद अब चीन का मुकाम दूसरे नंबर का हो गया है.

अभी तक आर्थिक ताकत और नागरिक विज्ञान-तकनीकी के मामले में यूरोपीय संघ खुद को इस दावे में बराबरी का हकदार मानता था, जबकि हथियारों के मामले में और साथ ही सामरिक तकनीक के लिहाज से भी रूस को अमेरिका के बाद दूसरी जगह दी जाती थी. मगर अब यूक्रेन जंग के बाद ये दोनों ही दावे ध्वस्त हो गए हैं.

इसके बरअक्स, चीन के पास एक बहुत बड़ी और तकनीकी रूप से कुशल आबादी है, आर्थिक संसाधनों की कोई कमी नहीं है, और लड़ने-झगड़ने वाला उसका कूटनीतिक मिजाज भी नहीं है.

सिर्फ भारत को छोड़कर तकरीबन सारे पड़ोसियों के साथ चीन ने अपने सीमा विवाद या तो पूरी तरह हल कर लिए हैं या ऐसा सिस्टम बना लिया है कि वो काबू से बाहर न हों. यही वजह है कि नॉमिनल GDP में अमेरिका के 30 ट्रिलियन डॉलर के मुकाबले चीन का आंकड़ा फ़िलहाल भले ही 20 ट्रिलियन डॉलर से कुछ कम हो, मगर खरीद क्षमता (PPP) के मामले में उसका GDP अमेरिका से भी एक तिहाई ज्यादा यानी 40 ट्रिलियन का आंकड़ा पार कर गया है. Pm Modi Xi Jinping

दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में चीन अकेला है, जो ट्रेड बैलेंस और फिस्कल बैलेंस, दोनों में लगातार पॉजिटिव आंकड़े सामने रख रहा है. इसे आधार बनाकर ही चीन ने वर्ल्ड बैंक और IMF जैसी ताकतवर वित्तीय संस्थाओं के सामने 2015 में ब्रिक्स के मंच से न्यू डिवेलमेंट बैंक को अमल में उतारने की पहल की और अभी हाल ही में SCO बैंक का प्रस्ताव भी पारित करवाया है, जिसका मकसद गैर-डॉलर व्यापार की तरफ बढ़ना है.

कर्जे में डूबी अमेरिकी अर्थव्यवस्था

असल में, एक हकीकत ये भी है कि डॉलर खुद में एक निराधार मुद्रा है, अमेरिकी अर्थव्यवस्था बुरी तरह से कर्जे में डूबी हुई है और अमेरिकी सत्ता अपनी मुद्रा के विश्व मुद्रा होने का बेवजह फायदा उठा रही है.

शुद्ध आर्थिक तर्कों से गैर-डॉलर व्यापार को सिस्टमैटिक रूप देने का काम आने वाले दिनों में चीन की पहल से संभव हो सकता है और SCO बैंक भी इसमें निर्णायक भूमिका अदा कर सकता है.

दुनिया की दूसरे नंबर की ताकत तो चीन बन ही गया है, लेकिन आगे के रास्ते को लेकर दो सवाल हैं. एक तो यह कि चीन में हर दस साल पर सत्ता परिवर्तन का जो सिस्टम तंग श्याओफिंग ने 1980 से बनाया हुआ था. शी जिनपिंग ने उसे तोड़ दिया है. दूसरे, महाशक्ति होने के दावे से बचकर चलने के वादे के बावजूद चीन की कम्युनिस्ट लीडरशिप बीच-बीच मे पड़ोसियों को उनकी औकात दिखाने और धमकाने का कोई मौका नहीं छोड़ती है.

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