हैदराबाद के निजाम मीर उस्मान को अपनी सेना को मजबूत करने के साथ ही पाकिस्तान से मदद की उम्मीद थी.
हैदराबाद की हालत बेहद नाजुक थी. निजाम उस्मान अली से भारत सरकार को बातचीत का सिलसिला लंबा खिंचता जा रहा था. दूसरी ओर वे पाकिस्तान से गलबहियां कर रहे थे. मसले को यू.एन.ओ. ले जाकर विवाद के अंतरराष्ट्रीयकरण की चाल भी निजाम चल चुके थे. कराची को बेस बनाकर हवाई मार्ग से ऑस्ट्रेलिया से हथियारों की खेप हैदराबाद पहुंचना जारी थी. उधर रियासत में हिंदू आबादी के साथ मची मार-काट, लूट-पाट के बीच वहां से उनका पलायन तेज हो गया था.
बीस हजार से अधिक हथियारबंद रजाकारों के आगे सब बेबस थे. उन्हें दूसरी जगहों से बुलाए गए पठानों का भी साथ मिल चुका था. निजाम की सेना के 42 हजार जवान इसके अलावा थे. ये साझा ताकत भारत से सीधे टकराने को तैयार थी.
निजाम को पाकिस्तान से थी मदद की उम्मीद
कश्मीर और जूनागढ़ के साथ हैदराबाद उन तीन रियासतों में शामिल था जिनका 15 अगस्त 1947 तक भारत में विलय मुमकिन नही हो सका था. अगले कुछ महीनों में कश्मीर और जूनागढ़ के भारत से जुड़ जाने के बाद भी हैदराबाद का सवाल अनसुलझा ही रहा.
लार्ड माउंटबेटन को हैदराबाद का मसला हल न हो सकने का रंज था. इसे अपनी असफलता मानते हुए 21 जून 1948 वे भारत से विदा हुए. माउन्टबेटन के कहने पर सरदार पटेल ने हैदराबाद को तीन महीने का अतिरिक्त समय दिया था. हैदराबाद से दिल्ली पहुंचने वाले प्रतिनिधिमंडल समझौते के मसविदे को मंजूरी देते और फिर हैदराबाद वापस होते ही इनकार का जवाब भेज देते थे.
हर बार नई शर्तों के साथ वार्ता की मेज पर पहुंचते थे. हैदराबाद के लिए कोई अलग फार्मूला मंजूर करने के लिए भारत तैयार नहीं था. असलियत में निजाम की तैयारियां दूसरी थीं. आने वाले दिनों में वे भारत से मुकाबले के लिए ताकत संजो रहे थे. अपनी सेना को मजबूत करने के साथ ही पाकिस्तान से उन्हें सीधी मदद की उम्मीद थी. बीस करोड़ का कर्ज भी उन्होंने पाकिस्तान को दिया था. अन्य देशों से भी वे समर्थन मांग रहे थे.

निजाम उस्मान अली. फोटो: Getty Images
अलग देश का निजाम का सपना
एक करोड़ साठ लाख आबादी वाली हैदराबाद रियासत में पचासी फीसद हिन्दू आबादी थी. सत्ता निजाम उस्मान अली खान की थी. पुलिस-सेना और प्रशासन में भी मुसलमानों का ही दबदबा था. 82,000 वर्गमील में फैली यह रियासत उत्तर में सेंट्रल प्रॉविन्स, पश्चिम में बम्बई और पूर्व और उत्तर में मद्रास से घिरी हुई थी. सालाना आमदनी 26 करोड़ थी. अपनी सेना और करेंसी भी थी. आबादी में मुस्लिमों का हिस्सा महज 15 फीसद था लेकिन 1946 में निजाम द्वारा गठित 132 सदस्यीय असेम्बली में हिन्दुओं की तुलना में मुस्लिम मेंबरों की तादाद दस ज्यादा थी.
भौगोलिक नजरिए से हैदराबाद भारत के केन्द्र में है लेकिन निजाम एक अलग देश का सपना देख रहे थे. पाकिस्तान का साथ था. वहां कासिम रजवी की अगुवाई में इत्तेहाद-उल-मुसलमीन के रजाकार माहौल में जहर घोल रहे थे. कम्युनिस्टों के साथ उनकी जुगलबंदी थी. रियासत में दिन में रजाकारों और रात में कम्युनिस्टों की अराजकता हावी थी.
रजाकार रजवी की ललकार!
हैदराबाद में अपने उत्तेजक भाषणों में कासिम रजवी ललकार रहा था कि मुसलमान एक हाथ में कुरान और एक में तलवार लेकर दुश्मन के सफाये के लिए निकल पड़ें. सिर्फ हैदराबाद नहीं बल्कि भारत के साढ़े चार करोड़ मुसलमानों को यह कहते हुए वह भड़काने पर तुला था कि हैदराबाद की जंग मे वे हमारे साथ हैं. रजवी सपना दिखा रहा था कि वो दिन दूर नही जब बंगाल की खाड़ी हमारी सल्तनत के पैर पखारेगी. दिल्ली के लाल किले पर आसफ़ जही झण्डा लहराएगा. ये भाषण सिर्फ हैदराबाद ही नहीं समूचे देश का माहौल खराब कर रहे थे.
रजाकारों के गिरोह हैदराबाद के कांग्रेसियों और हिन्दू आबादी पर हमलावर थे. उनकी हत्या और सम्पत्ति की लूट का सिलसिला जारी था. रजाकारों को नापसंद करने वाले मुसलमान भी परेशान किए जा रहे थे. रियासत से गुजरने वाली ट्रेनों पर हमलों की वारदातें बढ़ रही थीं. हैदराबाद से लगे सूबे भी रजाकारों के हमलों की चपेट में थे. दहशत के बीच हिन्दू आबादी का हैदराबाद से पलायन शुरु हो गया था. रजाकारों का यही मकसद भी था.

ताज फलकनुमा पैलेस हैदराबाद के निज़ाम का निवास स्थान था. फोटो: Getty Images
बदतर थे हैदराबाद के हालात
हैदराबाद के हालत बदतर होते जा रहे थे. हत्या, लूट, बलात्कार और हिन्दू आबादी को धमकाने की बढ़ती वारदातों के बीच कानून व्यवस्था पूरी तौर पर ध्वस्त हो चुकी थी. रजाकारों को मनमानी की पूरी छूट थी. रियासतों के एकीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले वी.पी. मेनन ने अपनी चर्चित किताब Integration of The Indian States में निजाम की एग्जीक्यूटिव काउंसिल के सदस्य जे.वी.जोशी ने इस्तीफे को उद्धृत किया है.
जोशी के मुताबिक, “परभनी और नांदेड़ में दहशत का साम्राज्य है. लोहा में हुए जुल्म और बर्बादी देख मेरी आंखों में आंसू निकल पड़े. ब्राह्मणों की हत्या की गई और उनकी आंखें निकाल ली गईं. औरतों के साथ बलात्कार किया गया. घरों को आग के हवाले कर दिया गया. ये सब मैंने अपनी आंखों से देखा. ऐसी सरकार जो इन जुल्मों को रोक नहीं सकती ,से मैं जुड़ा नहीं रह सकता. “
अब पटेल रुकने को नहीं थे तैयार
सरदार पटेल अब रुकने को तैयार नहीं थे. बीमारी के बाद भी 15 अप्रेल 1948 को हैदराबाद के प्राइम मिनिस्टर लईक अली के दिल्ली पहुंचने पर वे उनसे मिले. सरदार ने दो टूक कहा ,’ मुझे खूब पता है कि हैदराबाद की सत्ता किसके हाथों में है? जो हजरत (कासिम रजवी ) हैदराबाद पर हावी हैं, उसने कहा है कि अगर भारत हैदराबाद में दाखिल होता है तो डेढ़ करोड़ हिंदुओं की सिर्फ हड्डियां और राख मिलेगी. अगर ऐसी हालत है तो यकीनन वह निजाम और उसकी नस्लों का मुस्तक़बिल तबाह कर रहा है. जाइए निजाम से बात कर आखिरी जबाब दीजिए. ताकि हम फैसला कर सकें कि हमे क्या करना है? देश की जिस एकता को हमने अपना लहू देकर बनाया है, उसे कोई बरबाद करे, इसे बर्दाश्त नही करेंगे.”
हर ऐतराज को पटेल ने किया खारिज
अगस्त 1948 तक हैदराबाद की हालत बेहद नाजुक हो गई. सरदार पटेल काफी पहले से सैन्य कार्रवाई के लिए दबाव बनाए हुए थे. कश्मीर के हालात, पाकिस्तान के हस्तक्षेप, देश की सांप्रदायिक स्थिति और अंतरराष्ट्रीय दबाव जैसे मसले बैठकों में उठते रहे. नेहरू के अपने तर्क थे. गवर्नर जनरल राजगोपालाचारी अभी भी शांतिपूर्ण समाधान की उम्मीद लगाए थे. लेकिन हर ऐतराज को पटेल खारिज करते रहे. किसी कीमत पर हैदराबाद को खोने को वे तैयार नहीं थे. इसके चलते देश के लिए नई परेशानियां खड़ी हों , इसके पहले माकूल इलाज के लिए उन्होंने कमर कस रखी थी. अंततः कैबिनेट को हैदराबाद में सैन्य कार्रवाई के लिए एकराय हुआ.
ऑपरेशन पोलो
13 सितम्बर 1948 की भोर सेना आगे बढ़ी. इसे “ऑपरेशन पोलो” नाम दिया. जनरल बूचर ने आखिरी वक्त तक अभियान को रुकवाने की कोशिश की. हैदराबाद की सेना के बमवर्षक जहाजों का डर दिखाया. लेकिन लेफ्टिनेंट जनरल राजेन्द्रसिंह के निर्देशन और मेजर जनरल जे.एन. चौधरी की अगुवाई में सेना की एक डिवीजन शोलापुर-हैदराबाद रास्ते से आगे बढ़ती गई. दूसरी डिवीजन ने बैजवाड़ा-हैदराबाद रास्ते से धावा बोला.
हैदराबाद के लगभग 12 मील के भीतर नालदर्ग ब्रिज पार करते समय भारतीय सैन्य टुकड़ी ने हैदराबाद सेना के लेफ्टिनेंट टी टी मूर को विस्फोटकों से लदी जीप के साथ दबोचा. उससे पुल उड़ाने की तैयारी थी. भारतीय सेना ने अगर अपने अभियान में एक दिन की भी देरी की होती तो ऑपरेशन पोलो हफ़्तों आगे टल जाता.
हैदराबाद की सेना की तुलना में रजाकारों ने टक्कर की ज्यादा कोशिश की. पर 17 सितम्बर की शाम तक सब निपट चुका था. हैदराबाद रेडियो ने शाम को ही इसकी पुष्टि कर दी. हैदराबाद की सेना ने अगले दिन समर्पण कर दिया. भारतीय सेना के 42 जवान शहीद हुए. 24 लापता और 97 घायल हुए. हैदराबाद की सेना के 490 सैनिक मारे गए. 122 घायल हुए. 2,727 रजाकार मारे गए. 102 घायल हुए. 3,364 गिरफ्तार हुए. रजवी के बड़बोलेपन की रजाकारों को भारी कीमत चुकानी पड़ी. 19 सितम्बर को रजवी भी गिरफ्तार कर लिया गया.
पटेल-नेहरू फिर आमने-सामने
इस दौरान पूरे देश में अमन-चैन कायम रहा. साम्प्रदायिक हिंसा की एक भी घटना नही हुई. देश के मुसलमान भारत सरकार के साथ रहे. निजाम को संविधानिक मुखिया के तौर पर भारत ने स्वीकार किया. हालांकि इस सवाल पर 14 सितम्बर को कैबिनेट में फिर टकराव की नौबत आई. पटेल ने कहा कि निजाम खत्म. हम इस अल्सर को पाले नही रख सकते. उसका राजवंश खत्म.
नेहरु फट पड़े और बैठक छोड़कर चले गये. बाद में पटेल मान गए कि संविधानिक मुखिया के तौर पर निजाम कोई खास नुकसान नही पहुंचा सकते. निजाम ने हैदराबाद के भारत में विलय के दस्तावेजों पर दस्तखत कर दिए. मेजर जनरल जे.एन. चौधरी हैदराबाद के मिलेट्री गवर्नर बने. 23 सितम्बर को सयुंक्त राष्ट्र संघ से अपनी शिकायत वापस ले ली. रियासतों के एकीकरण का आखिरी कांटा निकल चुका था. हैदराबाद अब भारत का था.
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