कांग्रेस निर्णायक लड़ाई को तैयार थी. तो ब्रिटिश हुकूमत आंदोलन को कुचलने की पूरी तैयारी में थी. आठ अगस्त की शाम गांधी ने “करो या मरो” का नारा दिया. रात के आखिरी पहर तक महात्मा गांधी सहित कांग्रेस के सभी बड़े लीडर पुलिस की गिरफ्त में थे. बेशक उस सुबह लीडर जेल के रास्ते में थे लेकिन पुलिस के कहर से बेपरवाह जनता सड़कों पर थी. बंबई के उस गोवालिया मैदान जहां बीती शाम गांधी ने कहा था कि इसी क्षण से खुद को आजाद समझो,वहां भी बड़ा हुजूम इकट्ठा था. तभी पुलिस की भारी घेराबंदी को धता बताती एक युवती तेजी से मंच पर पहुंची और उसने तिरंगे की डोरी खींच दी. वो वीरांगना अरुणा आसफ अली थीं.
लहराते तिरंगे ने “अंग्रेजों भारत छोड़ो ” आंदोलन का श्रीगणेश और इस संकल्प को सच में बदलने के लिए जनता को “करो या मरो” के लिए कमर कसने का संदेश दिया. अंग्रेजों की गुलामी से निजात पाने के लिए 1857 के बाद का यह सबसे बड़ा जनांदोलन था.
अब गांधी रुकने को नहीं थे तैयार
दूसरा विश्वयुद्ध चल रहा था. युद्ध में उलझा ब्रिटेन अभी भारत छोड़ने को तैयार नहीं था. उसे भारत की जनता का सहयोग चाहिए था लेकिन आजादी के सवाल पर कोई फैसला करने को तैयार नहीं था. महात्मा गांधी का धैर्य जवाब दे चुका था. वो अब रुकने को तैयार नहीं थे. निर्णायक आंदोलन छेड़ने का वे मन बना चुके थे. अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की (29 अप्रैल से 2 मई 1942) की इलाहाबाद की बैठक में गांधी ने मीरा बेन के जरिए वो प्रस्ताव भेजा था , जिसमें अंग्रेजों से भारत को उसके हाल पर छोड़ देने की मांग की थी. इसी साल सात जुलाई से चौदह जुलाई तक वर्धा में हुई कांग्रेस वर्किंग कमेटी में गांधी जी ने दो टूक कहा था कि अगर कांग्रेस उनके प्रस्ताव के साथ नही है, तब वे अकेले ही संघर्ष शुरु करेंगे.
गांधी की सोच थी कि अंग्रेजों पर दबाव बनाने का यह सही समय है. दूसरी ओर मौलाना आजाद, पंडित नेहरु, पंडित गोविंद बल्लभ पंत,सैय्यद महमूद और आसफ़ अली जैसे नेताओं का कहना था कि इस मौके पर आंदोलन से जर्मनी-जापान के फासिस्ट गठजोड़ के खिलाफ़ मित्र राष्ट्रों की लड़ाई कमजोर होगी. लंबी मंत्रणा के बाद गांधी जी का प्रस्ताव स्वीकार किया गया. 7- 8 अगस्त 1942 के बंबई के सरगर्म अधिवेशन में इस प्रस्ताव को स्वीकृति प्रदान करते हुए 9 अगस्त से “भारत छोड़ों आंदोलन” का ऐलान किया गया.
ब्रिटिश हुकूमत की नज़र महात्मा गांधी के मुख से निकले हर शब्द पर रहती थी.
भारत को अपने हाल पर छोड़ दो
देश की जनता ने आजादी के संघर्ष के महानायक गांधी को इतना उत्तेजित कभी नहीं देखा था. कांग्रेस के नेताओं के लिए भी यह नया अनुभव था. मई 1942 में उन्होंने अंग्रेजों से कहा,”भारत को भगवान के भरोसे छोड़ दीजिए. अगर यह कुछ ज्यादा हो तो उसे अराजकता के भरोसे छोड़ दीजिए. यह व्यवस्थित और अनुशासित अराजकता समाप्त होनी चाहिए और अगर पूरी बदअमनी फैलती है, तो उसका जोखिम उठाने को मैं तैयार हूं.”
जुलाई में वर्किंग कमेटी की बैठक में वे कह चुके थे कि कोई साथ नहीं आया तो अकेला निकल पडूंगा. बम्बई में आठ अगस्त का उनका भाषण स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास की धरोहर है. उन्होंने कहा था देश की जनता इसी समय से खुद को आजाद समझें. जब खुद को आजाद मान लेते हैं, उसी समय गुलामी के बन्धन टूट जाते हैं.” करो या मरो” का नारा उन्होंने अपने इसी भाषण में दिया था. खुली लड़ाई का ऐलान करते हुए उन्होंने कहा था कि इस संघर्ष में कुछ भी छिपकर नही करना है.
आजाद लोग लुक-छिप कर आंदोलन नही करते और हमें खुलकर लड़ना है. गोलियों का सामना करने के लिए छाती खोल देनी है. यह अन्तिम युद्ध निर्णायक युद्ध होगा और इसलिए आजादी छीनें या उसके लिए जान गंवाएं.”
ब्रिटेन को पता थी गांधी की ताकत
ब्रिटिश हुकूमत की नज़र महात्मा गांधी के मुख से निकले हर शब्द पर रहती थी. जनता पर उनकी पकड़ का सरकार को अहसास था. अब जब गांधी जनता से आजादी के लिए गोलियां खाने को छाती खोल देने का आह्वान कर रहे तो आंदोलन के ताप को लेकर सरकार दहशत में थी. इसलिए निपटने की उसकी तैयारियां भी बड़े पैमाने पर थी. पुख्ता इंतजाम था कि नौ अगस्त की सुबह गांधी समेत कांग्रेस का कोई लीडर बाहर न रहे. सरकार युद्ध काल के असाधारण अधिकारों से लैस थी.

अंग्रेजों ने अपने खिलाफ उठने वाली आवाजों को दबाने के लिए तमाम नरसंहार किए. फोटो: Getty Images
बंबई अधिवेशन 8 अगस्त की मध्य रात तक चला था. नेताओं को बंबई से बाहर निकलने का मौका हीं नहीं मिला. खुफिया एजेंसियां एक्शन में थीं. देर रात से तीसरे पहर के बीच पुलिस उस हर ठिकाने को घेर चुकी थी,जहां ये नेता मौजूद थे. गांधी,नेहरू, पटेल, मौलाना आजाद, कृपलानी, महमूद अली, आसफ अली सहित सभी बड़े नेता भोर तक बंबई के विक्टोरिया टर्मिनस स्टेशन पहुंचाए जा चुके थे, जहां एक विशेष ट्रेन उन्हें आगे ले जाने को तैयार थी. स्टेशन पुलिस के घेरे में था. अन्य किसी यात्री के लिए वहां घुसने की गुंजाइश नहीं थी. गांधी के लिए अलग कंपार्टमेंट था. नेहरू, पटेल, मौलाना सहित वर्किंग कमेटी के सदस्य दूसरे डिब्बे में थे. बंबई के अन्य नेता तीसरे में. बाकी कंपार्टमेंट में भारी पुलिस बल मौजूद था.
अरुणा आसफ अली ने इतिहास रचा
कांग्रेस के तमाम नेताओं की गिरफ्तारी और विशेष ट्रेन से उनकी रवानगी के बाद बंबई की पुलिस और प्रशासन थोड़े इत्मीनान में था. ग्वालिया टैंक मैदान की भी उसने घेराबंदी कर रखी थी. जिस मैदान से आंदोलन छेड़ने की हुंकार हुई थी, वहीं इसे फुस्स करने की योजना थी. लेकिन वहां इतिहास रचने की जिम्मेदारी एक युवती ने ली . देर रात कांग्रेस नेताओं की गिरफ्तारी के वक्त जिन ठिकानों पर दस्तक हुई थी, उसमें वो फ्लैट भी शामिल था, जहां वर्किंग कमेटी के सदस्य आसफ अली टिके हुए थे. साथ में उनकी पत्नी अरुणा आसफ अली भी थीं, जो आजादी के आंदोलन की सक्रिय सदस्य थीं.
अरुणा ने पुलिस से पूछा क्या उनका भी वारंट है? पुलिस के इनकार के बाद भी गिरफ्तार पति को स्टेशन तक छोड़ने वे साथ गईं. अगस्त क्रांति की शुरुआत रोमांचक तरीके से हुई. रेलवे स्टेशन पर उनकी मुलाकात पूर्व परिचित धीरू भाई देसाई से हुई. अरुणा ने वापसी में उनकी कार से लिफ्ट ली और गोवालिया टैंक मैदान पर उतर गईं.

वीरांगना अरुणा आसफ अली.
पुलिस ने वहां मौजूद भीड़ को फौरन तितर-बितर होने का हुक्म दिया. पुलिस और भीड़ की कहा-सुनी और धक्का – मुक्की के बीच अरुणा तेजी से मंच पर पहुंच चुकी थीं. फौरन ही उन्होंने तिरंगे की डोरी खींच दी. लहराते तिरंगे ने “अंग्रेजों भारत छोड़ो” आंदोलन के श्रीगणेश और इस संकल्प को सच में बदलने के लिए जनता को “करो या मरो” के लिए कमर कसने का संदेश दिया. भौचक्की पुलिस ने लाठियों और आंसू गैस के गोलों की बरसात शुरू कर दी. आगे आंदोलन में और बड़ी भूमिका के लिए अरुणा ओझल हो चुकी थीं. तमाम दबाव, निजी संपत्ति की नीलामी और खुफिया कोशिशों से बेपरवाह अरुणा आसफ अली ने भूमिगत रहते हुए अगस्त क्रांति को धार दी.
सही में जनांदोलन: फैसले-अमल सब जनता के हाथ
अगस्त क्रांति के नाम से मशहूर हुए इस आंदोलन की कमान पूरी तरह जनता के हाथों में थी. उसे ही फैसले करने थे और उसे ही इन्हें अमल में लाना था. कांग्रेस के बड़े से छोटे तक नेता जेल में थे. ये सच्चे अर्थों में जनांदोलन था , जिसने बरतानिया हुकूमत को झकझोर दिया. गांधी ने आंदोलन का जो मंत्र दिया था उसमें सत्याग्रह, औद्योगिक हड़तालें, रेल रोकने, कर अदायगी बन्द करने, तार काटने और समानान्तर सरकारों की स्थापना जैसी उत्तेजक योजनाएं शामिल थी.
गांधी ने छूट दी थी कि अगर नेता गिरफ्तार कर लिए जाएं, तो अपनी कार्रवाई का रास्ता जनता खुद तय करे. आंदोलनकारी उसी रास्ते पर थे. शहरों से शुरू यह आंदोलन अगस्त के मध्य में गांवों तक पहुंच गया.
किसान-मजदूर, छात्र-युवक, बच्चे करो या मरो” और “अंग्रेजों भारत छोड़ो” के नारे लगाते सड़कों-गलियों में घूम रहे थे. रेलवे स्टेशन, डाकघर, थाने फूंके गए. रेल पटरियां काटी गईं. तार-खम्भे उखाड़ फेंके गए. ब्रिटिश सत्ता के प्रतीक चिन्हों पर लोगों का गुस्सा फूटा. अनेक स्थानों पर अपनी सरकारों की स्थापना हुई. डॉक्टर राम मनोहर लोहिया-ऊषा मेहता ने गुप्त रेडियो स्टेशन के प्रसारण के जरिए लोगों में जोश भरा.
जयप्रकाश नारायण और उनके कुछ साथी हजारीबाग जेल से फरार हो गए और भारत-नेपाल सीमा पर छापामार लड़ाई छेड़ी. बर्लिन से नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आजाद हिंद रेडियो का मार्च 1942 से ही प्रसारण शुरु हो चुका था. अरुणा आसफ़ अली, सुचेता कृपलानी आदि की अगुवाई में महिलाओं ने आंदोलन को ताकत दी.
1857 के बाद का सबसे बड़ा आंदोलन
वाइसरॉय लिनलिथगो ने इसे 1857 के बाद का सबसे गम्भीर विद्रोह कहा. आंदोलन को कुचलने के लिए सेना को सड़कों पर उतार दिया गया. स्थान-स्थान पर गोली वर्षों में हजारों युवाओं और छात्रों की शहादत हुई. 16 और 17 अगस्त को दिल्ली में 47 स्थानों पर सेना-पुलिस ने गोली चलाईं. उत्तर प्रदेश में 29 स्थानों पर पुलिस-सेना की फायरिंग में 76 जानें गईं. सैकड़ों जख्मी हुए. मैसूर में सिर्फ एक प्रदर्शन में सौ से अधिक लोग शहीद हुए. पटना में एक सरकारी भवन पर तिरंगा फहराने के दौरान आठ छात्रों का बलिदान हुआ. अनेक शहरों में सेना-पुलिस ने फायरिंग कर हजारों निर्दोषों की जानें लीं. सिंध में रेल सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने के आरोप में किशोर हेमू कालाणी को एक संक्षिप्त मुकदमे के बाद फांसी पर लटका दिया गया.
सैकड़ों लोगों को कोड़े मारे जाने की सजा दी गई. रेल-संचार और अन्य सरकारी संपत्तियों की भरपाई के लिए देश भर में जनता पर सामूहिक जुर्माने ठोंके गए. सेंट्रल प्रॉविन्स के चिमूर में थाने पर हमले में चार पुलिस कर्मी मारे गए. इस मामले में चले मुकदमे में 25 लोग फांसी पर लटका दिए गए और 26 को उम्र कैद की सजा दी गई. सरकारी बर्बरता ने अगले कुछ दिनों में आंदोलन की गति को भले मंद कर दिया हो , लेकिन आम जनता के गुस्से ने अंग्रेज़ी राज की उलटी गिनती शुरू कर दी. आजादी अब बहुत दूर नहीं रह गई थी.
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