पीठ ने यह भी कहा कि कोर्ट को पहले यह देखना चाहिए कि मामला किस विषय से संबंधित है। फिर इसमें उठाए गए प्रमुख मुद्दों को समझना चाहिए और अंततः विधिक तर्क लागू करने चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक आदेश पर गहरी नाराजगी जाहिर की है। हाईकोर्ट ने एक दोषी की सजा को निलंबित करने से इनकार कर दिया था, वह भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित सिद्धांतों को लागू किए बिना। जस्टिस जेपी पारदीवाला और आर. महादेवन की पीठ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश को रद्द करते हुए कहा कि इस तरह के मामलों में सजा निलंबन से संबंधित सुप्रीम कोर्ट के फैसलों को ध्यान में नहीं रखा गया।
इसके लिए रामा शिंदे गोसाई बनाम गुजरात राज्य (1999) में दिए गए निर्णय का भी उल्लेख किया गया। इस फैसले में कहा गया था कि यदि दोषी को निश्चित अवधि की सजा हुई हो और उसने वैधानिक अधिकार के तहत अपील दाखिल की हो तो सजा निलंबन को उदारतापूर्वक देखा जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “यह आदेश इलाहाबाद हाईकोर्ट से आया एक और ऐसा निर्णय है, जिससे हम निराश हैं। हमें फिर से यह कहना पड़ रहा है कि उच्च न्यायालय के स्तर पर ऐसी त्रुटियां केवल इसलिए हो रही हैं क्योंकि विषय से जुड़े स्थापित विधिक सिद्धांतों को सही तरीके से लागू नहीं किया जा रहा है।”
पीठ ने यह भी कहा कि न्यायालय को पहले यह देखना चाहिए कि मामला किस विषय से संबंधित है। फिर इसमें उठाए गए प्रमुख मुद्दों को समझना चाहिए और अंततः विधिक तर्क लागू करने चाहिए, न कि केवल अभियोजन पक्ष की कहानी दोहराते रहना चाहिए।
आपको बता दें कि दोषी को POCSO एक्ट की धाराएं 7 और 8, IPC की धाराएं 354, 354A, 323, और 504 के साथ-साथ अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 की धारा 3(1)(10) के तहत 4 साल की सश्रम कारावास की सजा सुनाई गई थी। सभी सजाएं साथ-साथ चलने के आदेश थे। दोषी ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 389 के तहत सजा निलंबन के लिए हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी, लेकिन हाईकोर्ट ने केवल यह कहते हुए याचिका खारिज कर दी कि यह गंभीर अपराध है।
सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणी
सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, “यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हाईकोर्ट ने केवल अभियोजन पक्ष की कहानी और मौखिक साक्ष्यों को दोहराया और सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्थापित मापदंडों को नजरअंदाज किया।” पीठ ने हाईकोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया और निर्देश दिया कि 15 दिनों के भीतर याचिका की पुनः सुनवाई की जाए और यह ध्यान में रखा जाए कि सजा निश्चित अवधि की है। देश की सर्वोच्च अदालत ने कहा, “केवल तभी याचिका खारिज की जा सकती है जब कोई स्पष्ट और अपवाद कारण यह दिखाए कि दोषी की रिहाई सार्वजनिक हित में नहीं होगी।”
गौरतलब है कि इसी पीठ ने चार अगस्त को एक अभूतपूर्व आदेश में इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज को आपराधिक मामले न सौंपने का निर्देश दिया था, क्योंकि उन्होंने एक दीवानी विवाद में आपराधिक प्रकृति के समन को गलती से बरकरार रखा था।