होम देश IIT Madras Develops Biodegradable Packaging from Agricultural Waste to Combat Plastic Pollution आईआईटी मद्रास ने खेती के कचरे से बनाया प्लास्टिक का विकल्प, India News in Hindi

IIT Madras Develops Biodegradable Packaging from Agricultural Waste to Combat Plastic Pollution आईआईटी मद्रास ने खेती के कचरे से बनाया प्लास्टिक का विकल्प, India News in Hindi

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आईआईटी मद्रास के शोधकर्ताओं ने कृषि कचरे से एक बायोडिग्रेडेबल पैकेजिंग सामग्री विकसित की है, जो प्लास्टिक के उपयोग को कम कर सकती है। यह सामग्री मिट्टी में घुल जाती है और प्लास्टिक प्रदूषण का स्थायी…

डॉयचे वेले दिल्लीThu, 7 Aug 2025 04:17 PM

भारतीय तकनीकी संस्थान (आईआईटी) मद्रास के शोधकर्ताओं की एक टीम ने कृषि के कचरे से बढ़िया गुणवत्ता वाली एक ऐसी बायोडिग्रेडेबल पैकेजिंग सामग्री विकसित की है जो प्लास्टिक के इस्तेमाल को खत्म कर सकती है.आईआईटी मद्रास के रिसर्चरों की टीम का दावा है कि यह शोध प्लास्टिक प्रदूषण और कृषि कचरे के निपटान जैसी दो प्रमुख समस्याओं का स्थायी समाधान कर समाज और पर्यावरण में सकारात्मक बदलाव लाने में सक्षम है.प्लास्टिक के विपरीत यह मिट्टी में घुल सकता है.आईआईटी मद्रास की शोधकर्ता सैंड्रा रोज बीबी, विवेक सुरेंद्रन और डॉ.लक्ष्मीनाथ कुंदानती की यह शोध रिपोर्ट “बायोसोर्स टेक्नोलॉजी रिपोर्ट्स” के जून अंक में छपी है.इस अध्ययन के लिए आईआईटी के अलावा केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने जरूरी रकम मुहैया कराई थी.कौन है इस खोज के पीछे आईआईटी मद्रास में डिपार्टमेंट ऑफ एप्लाइड मेकैनिक्स एंड बायोमेडिकल इंजीनियरिंग में असिस्टेंट प्रोफेसर और प्रमुख शोधकर्ता डा.लक्ष्मीनाथ कुंडानती ने एक अन्य शोधकर्ता के साथ मिल कर नेचरवर्क्स टेक्नोलॉजीज नामक एक स्टार्ट-अप की स्थापना की है.इसका मकसद नए उत्पादों को विकसित कर उनके व्यावसायिक उत्पादन को बढ़ावा देना है.डा.कुंदानती डीडब्ल्यू से बातचीत में बताते हैं, “अब हम इस तकनीक के प्रचार-प्रसार और बड़े पैमाने पर इसका लाभ उठाने के लिए भागीदारों की तलाश कर रहे हैं. ऐसे समझौतों के तहत भागीदारों को तकनीक का हस्तांतरण भी किया जाएगा” उनका कहना था कि कृषि और कागज के कचरे पर उगाए गए माइसीलियम-आधारित यह बायोकंपोजिट पैकेजिंग सामग्री बेहतर गुणवत्ता के साथ ही बायोडिग्रेडेबल भी होते हैं.आम जिंदगी में प्लास्टिक के इस्तेमाल से बढ़ रही दिल की बीमारीवो कहते हैं कि अब हमारा लक्ष्य इस तकनीक के प्रसार के लिए सरकारी वित्तीय सहायता वाली योजनाएं हासिल करना और इस शोध का ठोस सकारात्मक सामाजिक प्रभाव सुनिश्चित करना है.डा.कुंदानती बताते हैं, “भारत में हर साल करीब 350 मिलियन टन से ज्यादा कृषि कचरा पैदा होता है.इसमें से ज्यादातर को जला दिया जाता है या सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है.इससे बड़े पैमाने पर जिससे वायु प्रदूषण तो होता ही है, बेशकीमती संसाधन भी बर्बाद होते हैं”यहां इस बात का जिक्र प्रासंगिक है कि हर साल हरियाणा और आसपास के इलाकों में पराली जलाने के कारण दिल्ली समेत पूरे एनसीआर इलाके में बड़े पैमाने पर वायु प्रदूषण फैलता है.इस दौरान हवा की गुणवत्ता में भारी गिरावट दर्ज की जाती है.ईको फ्रेंडली होने के साथ-साथ किफायती भीशोधकर्ताओं का कहना है कि इस शोध का मकसद किफायती और पर्यावरण-अनुकूल पैकेजिंग विकल्प तैयार करना है.यह पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले प्लास्टिक की जगह लेने के साथ ही पर्यावरण की सेहत सुधारने में अहम भूमिका निभा सकता है.इसके व्यावसायिक उत्पादन से रोजगार के अवसर भी पैदा होंगे. डा.कुंदानती बताते हैं, “कृषि कचरे से तैयार इस कंपोजिट को संशोधित करने के बाद थर्मल और ध्वनि इन्सुलेशन सामग्री तैयार करने जैसे इंजीनियरिंग की विभिन्न शाखाओं में भी इसका इस्तेमाल किया जा सकता है” ऐसा प्लास्टिक जो समंदर के पानी में गल जाएगाशोधकर्ताओं की टीम की सदस्य सांद्रा रोज बीबी डीडब्ल्यू को बताती हैं, “पहले जितने शोध कार्य हुए हैं उनमें एकल सब्सट्रेट या फंगस पर ध्यान केंद्रित किया जाता रहा था.लेकिन हमने फंगस की दो किस्मों का इस्तेमाल करते हुए पांच सब्सट्रेटों पर इसके असर का तुलनात्मक अध्ययन किया.इस शोध से यह बात सामने आई कि कार्डबोर्ड, लकड़ी का बुरादा, कागज, कोकोपीथ और घास जैसे अलग-अलग सब्सट्रेट माइसेलियल के विकास के घनत्व और दूसरी चीजों को कैसे प्रभावित करते हैं.उसके बाद उनमें से बेहतर या आदर्श सबस्ट्रेट-फंगस कंबीनेशन को चुना गया”शोधकर्ता टीम के एक अन्य सदस्य विवेक सुरेंद्रन डीडब्ल्यू को बताते हैं, “हमारा नजरिया सर्कुलर इकोनॉमी के अनुरूप था.हमारा मकसद कम कीमत वाले कृषि और कागज के कचरे को उच्च कीमत वाले बायोडिग्रेडेबल पैकेजिंग सामग्री में बदलना था.इसके साथ ही इसके यांत्रिक गुणों को पेट्रोलियम से पैदा होने वाले फोम के बराबर या उससे बेहतर बनाए रखने की भी चुनौती थी”कचरे के पहाड़ भी होंगे छोटे शोधकर्ताओं का कहना है कि ईपीएस और ईपीई जैसे प्लास्टिक फोम की जगह माइसीलियम-आधारित बायोकंपोजिट के इस्तेमाल की स्थिति में लैंडफिल का बोझ काफी कम हो सकता है.इसके साथ ही माइक्रोप्लास्टिक बनने से रोका जा सकता है.अहम बात यह है कि इसके इस्तेमाल से प्लास्टिक उत्पादन और कचरे को जलाने के कारण होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कटौती की जा सकती है.इससे ग्रामीण इलाकों में कृषि के सहायक उत्पादों की मांग बढ़ने की स्थिति में रोजगार के अवसर भी पैदा हो सकते हैं. लैंडफिल शहरों या कस्बों से बाहर कचरा जमा करने वाली जगह को कहा जाता है.कचरे का ढेर भरने के बाद पर्यावरण को होने वाले नुकसान से बचने और कीड़े-मकोड़ों और बदबू को रोकने के लिए उसे मिट्टी से ढक दिया जाता है.कचरा प्रबंधन के इस तरीके का इस्तेमाल अमूमन उस स्थिति में किया जाता है जब कचरे की रिसाइक्लिंग या दूसरे तरीके से उसका निपटान संभव नहीं हो.पर्यावरणविदों ने इस शोध पर खुशी जताते हुए कहा है कि जमीनी स्तर पर इसे लागू करना जरूरी है.पर्यावरणविद सुरेंद्र कुमार राय डीडब्ल्यू से कहते हैं, “यह शोध बेहद सकारात्मक है.प्लास्टिक के कचरे की समस्या दिनोंदिन गंभीर होती जा रही है.उसकी जगह इस बायोकंपोजिट पेकेंजिग सामग्री का इस्तेमाल कर पर्यावरण की रक्षा के साथ-साथ वायु प्रदूषण पर भी काफी हद तक अंकुश लगाया जा सकता है”कोलकाता के एक कालेज में पर्यावरण विज्ञान की प्रोफेसर रहीं अनिंदिता चटर्जी डीडब्ल्यू से कहती हैं, “अमूमन कृषि के बेकार समझे जाने वाले कचरे को फेंक दिया जाता है.इससे तमाम समस्याएं पैदा होती हैं.लेकिन अब प्लास्टिक के विकल्प के तौर पर पैकेजिंग के लिए इसके इस्तेमाल से यह समस्याएं तो दूर होंगी ही, ग्रामीण इलाकों में विकास की नई राह भी खुलेगी.लेकिन इसके लिए व्यावसायिक तौर पर इसका उत्पादन जरूरी है ताकि यह सहजता से उपलब्ध हो सके”.

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