होम राजनीति जय-वीरू और चंदन-सांप… लालू-नीतीश का अनोखा रिश्ता! सियासी खेल में कभी दोस्ती तो कभी दुश्मनी, पढ़िये दिलचस्प कहानी

जय-वीरू और चंदन-सांप… लालू-नीतीश का अनोखा रिश्ता! सियासी खेल में कभी दोस्ती तो कभी दुश्मनी, पढ़िये दिलचस्प कहानी

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पटना. जब बिहार की सियासत जेपी आंदोलन की आग में तप रही थी तो वह 1970 का दशक था. पटना विश्वविद्यालय के गलियारों में लालू प्रसाद यादव की हाजिरजवाबी और नीतीश कुमार की रणनीतिक सोच ने दोनों को जयप्रकाश नारायण का करीबी बना दिया. 1974 में भ्रष्टाचार और तानाशाही के खिलाफ सड़कों पर उतरे दोनों युवा नेताओं ने जेल की सलाखों तक साथ-साथ लाठियां खाईं. लालू यादव की दबंगई और नीतीश कुमार की शांत, लेकिन गहरी सोच ने उनकी जोड़ी को बिहार की सियासत में मशहूर कर दिया. 1970 के दशक में जब देश आपातकाल की ओर बढ़ रहा था तो उसी दौरान बिहार में जेपी आंदोलन के दौरान पटना विश्वविद्यालय में लालू यादव और नीतीश नीतीश कुमार की मुलाकात हुई थी. लालू यादव की हाजिरजवाबी और नीतीश कुमार की रणनीतिक सोच ने इन दोनों को ही जेपी के करीबी बना दिया था. वर्ष 1974 में भ्रष्टाचार और तानाशाही के खिलाफ लोग सड़कों पर उतरे तो ये दोनों जेल भी गए. इस आंदोलन के दौरान दोनों ने लाठियां खाईं और एक-दूसरे के लिए ढाल भी बने. 25 जून 1975 को आपातकाल लागू होने की घोषणा की गई तो आंदोलन उग्र होता गया. जेपी की अगुवाई में आंदोलन ने दम दिखाया और वर्ष 1977 में देश में आपातकाल हटा लिया गया. यहां से दोनों की चुनावी राजनीति की शुरुआत हुई और जनता पार्टी की जीत ने दोनों को सियासी मंच दे दिया.

लालू यादव की लोकप्रियता और नीतीश कुमार की मेहनत ने उन्हें जनता दल में अहम जगह दिलाई. यह दोस्ती तब और गहरी हुई जब 1977 में 29 वर्ष की उम्र में लालू यादव छपरा से लोकसभा सांसद बन गए. इस चुनाव में नीतीश कुमार उनके लिए प्रचार में जी-जान लगे थे. इसके बाद दोनों की राजनीतिक यात्रा आगे बढ़ती गई. 1980 के दशक तक लालू-नीतीश की जोड़ी बिहार में अजेय मानी जाने लगी. राजनीतिक के जानकार बताते हैं कि 1990 में जनता दल की जीत के बाद लालू यादव बिहार के मुख्यमंत्री बने तो इसके पीछे नीतीश कुमार की रणनीति और विधायकों को जोड़ने की मेहनत थी. नीतीश कुमार ने लालू यादव को नेता प्रतिपक्ष बनाने में 42 विधायकों का समर्थन जुटाया जिससे लालू की राह सत्ता तक पहुंची. लेकिन, सत्ता की चमक ने दोस्ती में दरार डाल दी.
लालू यादव की जातीय राजनीति और मुस्लिम-यादव (MY) समीकरण की रणनीति ने नीतीश कुमार की विकास-केंद्रित सोच से टकराव पैदा किया. हालांकि, राजनीति के जानकार यह कहते हैं कि इसकी जड़ में कहीं न कहीं राजनीतिक महत्वाकांक्षा रही. वर्ष 1993 तक नीतीश कुमार ने बगावत का बिगुल बजा दिया और 1994 में जॉर्ज फर्नांडीस के साथ मिलकर समता पार्टी बना ली. जाहिर है दोस्त अब सियासी दुश्मन बन चुके थे. इसी बीच वर्ष 1996 में बिहार में 903 करोड़ रुपये के चारा घोटाले ने लालू यादव की सियासी जमीन हिला दी. उनके इस्तीफे के बाद उन्होंने पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना दिया, जिसे नीतीश ने परिवारवाद का तमगा दिया. इसके बाद नीतीश कुमार ने ‘जंगलराज’ के खिलाफ सुशासन का नारा बुलंद किया और 1999 में बीजेपी के साथ गठबंधन किया. वर्ष 2005 में नीतीश कुमार ने लालू-राबड़ी के 15 साल के शासन को उखाड़ फेंका.

लालू यादव और नीतीश कुमार के बीच दोस्ती और दुश्मनी के रिश्ते को समझ पाना सबके बस की बात नहीं.

अदावत में भी बनी रही नरमी

लालू यादव और नीतीश कुमार की सियासी दुश्मनी के बावजूद दोनों ने एक-दूसरे के लिए सद्भाव बनाए रखा. लालू यादव की आत्मकथा ‘गोपालगंज से रायसीना’ में वे नीतीश को ‘ऋणी’ बताते हैं, क्योंकि नीतीश ने 1990 में उनका समर्थन किया था. लेकिन, वे यह भी कहते हैं कि नीतीश ‘वैचारिक रूप से ढुलमुल’ हो गए. दूसरी ओर नीतीश कुमार ने 2005 में लालू के ‘जंगल राज’ को खत्म करने का दावा किया. हालांकि, एक हकीकत तो यह भी है कि नीतीश कुमार ने हमेशा लालू यादव के परिवार के आयोजनों में शिरकत की. वर्ष 2013 में नीतीश कुमार ने बीजेपी से गठबंधन तोड़ा और 2015 में लालू के साथ महागठबंधन बनाया. लालू-नीतीश की दोस्ती का यह नया अध्याय था. दोनों नेताओं ने महागठबंधन के तहत बिहार विधानसभा चुनाव लड़ा और बड़ी जीत प्राप्त की. नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री के रूप में कार्य किया, जबकि लालू यादव की पार्टी राजद ने सरकार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. हालांकि, यह दोस्ती ज्यादा दिनों तक नहीं टिक पाई और वर्ष 2017 में भ्रष्टाचार के आरोपों पर नीतीश फिर बीजेपी के साथ चले गए.

लालू यादव ने नीतीश कुमार का स्वागत किया

वर्ष 2017 में नीतीश कुमार ने एक बार फिर से पाला बदला और भाजपा के साथ मिलकर सरकार बना ली. लालू यादव की पार्टी राजद विपक्ष में बैठ गई. इसके बाद से दोनों नेताओं के बीच सियासी अदावत और बढ़ गई. लालू यादव ने नीतीश कुमार पर भाजपा के साथ मिलकर बिहार को बेचने का आरोप लगाया, जबकि नीतीश कुमार ने लालू यादव पर भ्रष्टाचार और परिवारवाद का आरोप लगाया. लेकिन, इसके समानांतर एक और कहानी चलती रही है और लालू-नीतीश की कहानी में बार-बार साथ आने और अलग होने का सिलसिला बिहार की सियासत का हिस्सा बन चुका है. वर्ष 2022 में फिर ऐसा ही हुआ और नीतीश कुमार ने फिर बीजेपी का साथ छोड़कर राजद के साथ सरकार बनाई. लालू यादव ने नीतीश कुमार का स्वागत किया. कहा जाता है कि तेजस्वी यादव इसके खिलाफ थे, लेकिन वह इस सरकार में फिर डिप्टी सीएम बने. लेकिन, बाद में फिर सियासी कहानी में ट्विस्ट आ गया और 2024 में नीतीश कुमार फिर एनडीए में लौट गए.

लालू-नीतीश बार-बार साथ हुए, फिर जुदाई

इसके बाद से आज तक लालू यादव और नीतीश कुमार के बीच सियासी अदावत जारी है. दोनों नेता बिहार की राजनीति में एक दूसरे के खिलाफ सियासी जंग लड़ रहे हैं. लेकिन, 2024 में ही लालू यादव ने कई बार नीतीश कुमार को ऑफर दिया कि ‘दरवाजे खुले हैं’. लेकिन, तेजस्वी यादव ने इसे खारिज करते हुए कहा, नीतीश कुमार के लिए दरवाजे बंद हैं. दरअसल, वास्तविकता यह है कि लालू यादव और नीतीश कुमार, दोनों के बीच सियासी गणित और वैचारिक मतभेद रिश्तों को जटिल बनाते हैं. नीतीश की ‘जंगल राज’ की आलोचना और लालू की ‘पलटूराम’ और तेजस्वी यादव की ‘पलटू चाचा’ वाली तंजबाजी इस अदावत की आग में घी डाल देती है.
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि भविष्य में दोनों नेताओं के बीच क्या होता है और बिहार की राजनीति में क्या नया मोड़ आता है.

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लालू यादव की दोस्ती-दुश्मनी… सत्ता, और सियासी हितों के बीच के कई सवालों में लिपटे हुए रिश्तों को दर्शाती है.

दोस्ती और अदावत का अनोखा मेल

दरअसल, राजनीति के जानकारों की दृष्टि में लालू यादव-नीतीश कुमार की कहानी सिर्फ सियासत की नहीं, बल्कि भावनाओं और रणनीति की मिली जुली कहानी है. दोनों एक-दूसरे के परिवार के समारोहों में शामिल होते हैं, फिर भी सियासी मंचों पर तीखे तीर चलाते हैं. लालू यादव की हाजिरजवाबी और नीतीश कुमार की रणनीति ने बिहार की सियासत को दशकों तक प्रभावित किया. फ्रेंडशिप डे पर यह कहानी बताती है कि सियासत में दोस्ती और दुश्मनी के बीच की रेखा धुंधली होती है. क्या इसे दोस्ती कहें या सियासी गठजोड़? शायद यह बिहार की सियासत का अनोखा रंग है.

लालू-नीतीश क्या फिर साथ आएंगे?

2025 के बिहार विधानसभा चुनाव से पहले लालू और नीतीश की यह कहानी फिर चर्चा में है. लालू यादव के बेटे तेजस्वी यादव अब नीतीश कुमार के खिलाफ मजबूत विपक्षी चेहरा हैं, लेकिन लालू का नीतीश कुमार को ‘खुले दरवाजे’ का ऑफर सियासी गणित की नई बिसात बिछाता है. क्या नीतीश कुमार फिर पलटकर लालू यादव के साथ हो जाएंगे, या तेजस्वी की नई पीढ़ी इस दोस्ती-अदावत को नया मोड़ देगी? यह सवाल बिहार की सियासत को और रोमांचक बनाता है.

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