पंडित नेहरू के प्रबल विरोध के बाद भी पुरुषोत्तम दास टंडन कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव से पीछे हटने को तैयार नहीं थे.
कांग्रेस के अध्यक्ष पद के दो ऐसे चुनाव हुए जब हिंदी का सवाल भी किसी उम्मीदवार के समर्थन या फिर विरोध का कारण बना. ये उम्मीदवार हिंदी के प्रबल पैरोकार राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन थे. 1948 में वे पराजित हो गए थे लेकिन 1950 में पंडित नेहरू के खुले विरोध के बाद भी वे कांग्रेस के अध्यक्ष पद का चुनाव जीत गए थे.
हिंदी के समर्थन और विभाजन के विरोध के कारण नेहरू सहित प्रगतिशीलों की निगाह में टंडन की छवि साम्प्रदायिक और पुरातनपंथी नेता की थी. उनके जन्मदिन पर पढ़िए इससे जुड़े कुछ किस्से…
पट्टाभि और टंडन यानी दक्षिण बनाम उत्तर
1948 में संविधान सभा की बैठकों में राष्ट्रभाषा के सवाल पर काफी सरगर्म बहसें जारी थीं. दक्षिणी राज्यों के प्रतिनिधि हिंदी को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे. भाषा का विवाद उत्तर-दक्षिण की खींचतान में बदल रहा था. इस विवाद को उसी साल कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव ने और हवा दे दी थी. तेलगुभाषी मद्रास निवासी पट्टाभि सीतारमैया का कहना था कि पूरा दक्षिण भारत उनके साथ है.
पंडित जवाहर लाल नेहरू सहित कांग्रेस के प्रभावशाली नेतृत्व का भी उनकी उम्मीदवारी को खुला समर्थन था. लेकिन मुकाबले में राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन के मैदान में आ जाने के बाद भाषा विवाद और उत्तर-दक्षिण के बीच की बहस और तेज हो गई थी. टंडन आजादी के संघर्ष के समय से ही हिंदी के पक्ष में सक्रिय रहे. संविधान सभा में इस सवाल पर वे और मुखर थे. उनके इस रुख ने अगर समर्थक तैयार किए थे तो विरोधियों का भी विस्तार किया था.
भाषा ने चुनाव पर असर दिखाया
पार्टी के एक वर्ग की ओर से टंडन पर अध्यक्ष पद की उम्मीदवारी से नाम वापस लेने का काफी दबाव था. उत्तर भारत से संबंध रखने वाले कई बड़े नेताओं को अंदेशा था कि पट्टाभि सीतारमैया के विरुद्ध टंडन जी की उम्मीदवारी दक्षिण और शेष भारत के बीच दूरियां बढ़ाने और भाषा विवाद के कटु बनने का कारण बन सकती है.
डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद ने टंडन से उम्मीदवारी वापस लेने का आग्रह किया था. प्रसाद ने लिखा, “मुझे ऐसा लगता है कि हमें दक्षिण भारतीय लोगों के इस आरोप पर गहराई से विचार करना चाहिए कि उन्हें कांग्रेस में पर्याप्त महत्व नहीं दिया जाता. मेरा मानना है कि दक्षिण भारत के एकमात्र प्रत्याशी डॉक्टर पट्टाभि के विरुद्ध चुनाव लड़ना एक ओर उत्तर व पश्चिम और दूसरी ओर दक्षिण के बीच शक्ति परीक्षण माना जाएगा और यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा.”
टंडन किसी तरह नाम वापसी के लिए राजी नहीं हुए थे. कड़े मुकाबले में वे पराजित हो गए थे. “हरिजन” ने इस चुनाव के विश्लेषण में माना था कि भाषा के मुद्दे ने मतदान पर अपना प्रभाव छोड़ा था.
दाढ़ी, विभाजन विरोध और हिंदी प्रेम ने किया नेहरू को खिलाफ़
पुरुषोत्तम दास टंडन की हिंदी समर्थक और विभाजन विरोधी छवि ने अगर समर्थक और प्रशंसक तैयार किए तो दूसरी ओर पंडित जवाहर लाल नेहरू समेत अनेक नेताओं को उनके विरोध में भी खड़ा कर दिया. कांग्रेस अध्यक्ष के 1950 के चुनाव में टंडन एक बार फिर उम्मीदवार थे. प्रभावशाली सरदार पटेल का उन्हें समर्थन था. लेकिन दाढ़ी, विभाजन के प्रबल विरोध और हिन्दी के प्रति उत्कट प्रेम के कारण पंडित नेहरु की नजर में टंडन की छवि एक पुरातनपंथी और साम्प्रदायिक नेता की थी. उनके द्वारा शरणार्थियों के एक सम्मेलन की अध्यक्षता किए जाने से भी पण्डित जी नाराज थे.
नेहरू इस हद तक उनके विरोध में गए कि 8 अगस्त 1950 को उन्होंने टंडन को सीधे पत्र लिखकर कहा कि आपके चुने जाने से उन ताकतों को जबरदस्त बढ़ावा मिलेगा, जिन्हें मैं देश के लिए नुकसानदेह मानता हूं. 12 अगस्त को जवाब में टंडन ने लिखा कि हम बहुत से सवालों पर एकमत रहे हैं. अनेक बड़ी समस्याओं पर साथ काम किया है. पर कुछ ऐसे विषय हैं, जिस पर हमारा दृष्टिकोण एक नही है. हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाया जाना और देश का विभाजन इसमें सबसे प्रमुख है.

पंडित जवाहर लाल नेहरू
जीत के बाद भी देना पड़ा इस्तीफा
पंडित नेहरू के प्रबल विरोध के बाद भी टंडन जी पीछे हटने को तैयार नहीं थे. उधर नेहरू ने घोषणा की थी कि अगर टंडन जीते तो वे प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दे देंगे. एक तरफ पंडित नेहरू का खुला विरोध था दूसरी ओर टंडन को सरदार पटेल का मजबूत समर्थन था. इस चुनाव में 1306 वोट हासिल कर उन्होंने जीत दर्ज की थी.
आचार्य कृपलानी जिन्हें नेहरू का समर्थन था, को 1092 और शंकर राव देव को 202 वोट मिले थे. टंडन की जीत के बाद यद्यपि नेहरू ने इस्तीफे की अपनी घोषणा पर तो अमल नहीं किया लेकिन निर्वाचित अध्यक्ष के प्रति उनका रुख असहयोग का था. सरकार और पार्टी संगठन के बीच दूरियां बढ़ती गईं.
15 दिसंबर 1950 को सरदार पटेल की मृत्यु के बाद टंडन खेमा काफी कमजोर हो गया. सितंबर 1951 तक टंडन पर नेहरू खेमे का दबाव काफी बढ़ गया. पहला आम चुनाव नजदीक था. टंडन को झुकना पड़ा. उन्होंने अध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर सरकार और संगठन दोनों को अपनी इच्छा से चलाने का पंडित नेहरू को अवसर दे दिया.
साम्प्रदायिक तुष्टिकरण के लिए हिन्दी विरोध !
हिंदी के समर्थन में टंडन की मुखरता राजनीतिक नजरिए से उनके लिए घाटे की वजह थी लेकिन इसकी उन्होंने परवाह नहीं की. 7अगस्त 1949 को दिल्ली में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में उन्होंने कहा , “जो लोग हिंदी को राष्ट्रभाषा और नागरी को लिपि घोषित करने का विरोध कर रहे हैं,वे राष्ट्रविरोधी तुष्टिकरण नीति पर चलते हुए सांप्रदायिक भावनाओं को शह दे रहे हैं. संविधान सभा के अपने भाषण में प्रशासनिक प्रयोजनों के लिए अगले 15 वर्षों के लिए अंग्रेजी कायम रखने के प्रस्ताव का उन्होंने विरोध किया था.
उनका कहना था कि ऐसे लोग जिन्हें अंग्रेजी का कोई ज्ञान नहीं है,उनके लिए यह परेशान करने वाली व्यवस्था होगी. टंडन ने दक्षिण के सदस्यों के इस तर्क को सिरे से खारिज किया था कि वहां के लोगों के लिए हिन्दी अपरिचित भाषा है. सच तो यह है कि महात्मा गांधी के प्रयासों से 1918 से ही दक्षिण में हिंदी का प्रचार – प्रसार और सीखने का क्रम जारी है. वहां लाखों लोग हिंदी सीख चुके हैं और बड़ी संख्या में विद्यार्थी इससे जुड़ी परीक्षाओं में शामिल होते हैं.
हर मंच पर हिंदी के लिए मुखर
1 अगस्त 1882 को इलाहाबाद में जन्मे पुरुषोत्तम दास टंडन का छात्र जीवन में अंग्रेजी शासन के विरोध के कारण म्योर कालेज से निष्कासन हुआ. 1906 में उन्होंने इलाहाबाद हाई कोर्ट में वकालत शुरु की लेकिन 1921 में वकालत छोड़ कर वे देश के लिए समर्पित हो गए. उन्होंने किसानों, मजदूरों के बीच काम किया. बार-बार जेल यात्राएं की. वे अच्छे लेखक-संपादक और वक्ता थे. देश की सभ्यता-संस्कृति और हिन्दी भाषा से उन्हें गहरा लगाव था. हिंदी के प्रचार-प्रसार में वे हमेशा सक्रिय रहे.
1910 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन, 1918 में हिन्दी विद्यापीठ और 1947 में हिन्दी रक्षक दल की उन्होंने शुरुआत की. 1937 से 1950 के 13 वर्षों की अवधि में उत्तर प्रदेश (पूर्व में यूनाइटेड प्रोविंस) असेंबली के स्पीकर पद पर रहते हुए और फिर 1952 में लोकसभा और बाद में राज्यसभा के उनके भाषणों में हिंदी को उसका उचित स्थान न दिए जाने की शिकायत कायम रही.
1961 में उन्हें भारत रत्न से अलंकृत किया गया. स्वास्थ्य कारणों से कार्यकाल पूरा होने के पहले ही उन्होंने राज्यसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया था. 1 जुलाई 1962 को उनका निधन हुआ.
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