होम नॉलेज क्या अंग्रेजी न आने पर रुक सकती है सरकारी पोस्टिंग? ADM पर उत्तराखंड HC के चीफ जस्टिस नाराज

क्या अंग्रेजी न आने पर रुक सकती है सरकारी पोस्टिंग? ADM पर उत्तराखंड HC के चीफ जस्टिस नाराज

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उत्‍तराखंड हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस ने अपने आदेश में कहा था कि अंग्रेजी न जानने वाला अधिकारी क्या अपने दायित्व के साथ न्याय कर पाएगा?

उत्तराखंड हाईकोर्ट का एक आदेश और उस आदेश पर सुप्रीम कोर्ट की रोक के बाद यह मामला सुर्खियों में है. खास बात यह है कि हाईकोर्ट का आदेश चीफ जस्टिस का है तो सुप्रीम कोर्ट का आदेश भी चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया की अध्यक्षता वाली बेंच से आया है. पंचायत चुनाव के एक मामले में सुनवाई के लिए एडीएम विवेक राय हाईकोर्ट में पेश हुए. कहा गया है कि अदालत के सामने वे हिन्दी में अपना पक्ष रखने लगे.

इस पर चीफ जस्टिस न केवल नाराज हुए बल्कि राज्य निर्वाचन आयुक्त के लिए एक आदेश पारित किया कि वे इस बात की जांच करें कि अंग्रेजी की समझ न रखने वाला अधिकारी क्या अपने वर्तमान दायित्व के साथ न्याय कर पाएगा? इस मसले को लेकर उत्तराखंड के अफसर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए और वहां से उन्हें राहत मिल गई.

न्यायपालिका, प्रशासन और भाषा का सवाल

भारत विविध भाषाओं का देश है, जहां संविधान ने 22 भाषाओं को आठवीं अनुसूची में मान्यता दी है. हिंदी, देश की राजभाषा है, जबकि अंग्रेज़ी को सह-राजभाषा का दर्जा प्राप्त है. प्रशासनिक और न्यायिक कार्यों में भाषा का सवाल हमेशा से बहस का विषय रहा है. उत्तराखंड हाईकोर्ट के आदेश ने इस बहस को और तेज़ कर दिया. आइए, दोनों ही अदालतों के हालिया आदेश के आलोक में समझते हैं कि नियम-कानून इस मामले में क्या कहते हैं? जमीनी हकीकत क्या है? इस मसले पर क्या कहते हैं विशेषज्ञ?

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 के अनुसार, हिंदी भारत की राजभाषा है. हालांकि, अनुच्छेद 348 के तहत उच्च न्यायालयों और सुप्रीम कोर्ट में कार्यवाही अंग्रेज़ी में होती है, जब तक कि राष्ट्रपति द्वारा अन्यथा आदेश न दिया जाए. लेकिन प्रशासनिक कार्यों के लिए केंद्र और राज्य सरकारें अपने-अपने स्तर पर भाषा का निर्धारण कर सकती हैं. उत्तराखंड जैसे हिंदी भाषी राज्य में, प्रशासनिक कार्यों में हिंदी का प्रयोग स्वाभाविक और संवैधानिक रूप से समर्थित है.

क्या अंग्रेज़ी बोलना अनिवार्य है?

किसी भी भारतीय कानून में यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा गया है कि अधिकारी को हर हाल में अंग्रेज़ी बोलना या लिखना अनिवार्य है. भारतीय प्रशासनिक सेवा, राज्य प्रशासनिक सेवा या अन्य सरकारी सेवाओं की भर्ती परीक्षाओं में उम्मीदवारों को हिंदी या अंग्रेज़ी, दोनों में से किसी भी भाषा में उत्तर देने की छूट होती है. सेवा में आने के बाद भी, अधिकारी अपने राज्य की राजभाषा में कार्य कर सकते हैं, जब तक कि कोई विशेष कार्य अंग्रेज़ी में करने का निर्देश न हो.

न्यायपालिका में भाषा सवाल

न्यायपालिका में भाषा का सवाल थोड़ा जटिल है. सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों में आमतौर पर अंग्रेज़ी का प्रयोग होता है, लेकिन संविधान के अनुच्छेद 348(2) के तहत राज्य सरकारें, राष्ट्रपति की अनुमति से, उच्च न्यायालय में हिंदी या अन्य क्षेत्रीय भाषाओं का प्रयोग कर सकती हैं. निचली अदालतों में तो प्रायः हिंदी या स्थानीय भाषा का ही प्रयोग होता है.

हिन्दी में अपनी बात रखना संविधान के खिलाफ नहीं

उत्तराखंड हाईकोर्ट के आदेश में जिस अधिकारी के खिलाफ जांच के आदेश दिए गए, उसका दोष केवल इतना था कि उसने अदालत में अंग्रेज़ी बोलने में असमर्थता जताई और हिंदी में अपना पक्ष रखा. यह न तो संविधान के खिलाफ है, न ही किसी कानून के. सुप्रीम कोर्ट ने भी इस आदेश पर रोक लगाकर यह स्पष्ट कर दिया कि भाषा के आधार पर किसी अधिकारी की योग्यता या अयोग्यता तय नहीं की जा सकती, खासकर तब जब वह राज्य की राजभाषा में संवाद कर रहा हो.

सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता अश्विनी कुमार दुबे भी संविधान के हवाले से कहा कि उत्तराखंड में तैनात कोई अफसर अगर हिन्दी नहीं जानता तो एक बार सवाल उठ सकता है लेकिन हिन्दी में अपनी बात रखना किसी भी रूप में जुर्म नहीं है. संभवतः इसी आलोक में सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के आदेश पर रोक लगाई. वह कहते हैं, भारत भाषाई विविधता वाला एक देश है. यहां भाषा के आधार भर भेदभाव नहीं किया जा सकता. हिन्दी यूं भी हमारी राजभाषा है. उत्तराखंड की भाषा भी हिन्दी है.

भाषा और प्रशासनिक दक्षता

प्रशासनिक दक्षता का पैमाना भाषा नहीं, बल्कि कार्यकुशलता, ईमानदारी और जनता के प्रति उत्तरदायित्व होना चाहिए. भारत जैसे बहुभाषी देश में, अधिकारी का अपनी मातृभाषा या राजभाषा में कार्य करना उसकी दक्षता को कम नहीं करता. बल्कि, यह प्रशासन को जनता के और करीब लाता है. अंग्रेज़ी का ज्ञान निश्चित रूप से एक अतिरिक्त योग्यता है, लेकिन उसकी अनिवार्यता थोपना न तो व्यावहारिक है, न ही संवैधानिक.

भाषा के आधार पर भेदभाव अनुचित

संविधान का अनुच्छेद 14 समानता का अधिकार देता है. भाषा के आधार पर किसी के साथ भेदभाव करना संविधान की भावना के खिलाफ है. यदि किसी अधिकारी को केवल इसलिए अयोग्य ठहरा दिया जाए कि वह अंग्रेज़ी में संवाद नहीं कर सकता, तो यह न केवल असंवैधानिक है, बल्कि सामाजिक न्याय के भी खिलाफ है.

उत्तराखंड हाईकोर्ट के आदेश और सुप्रीम कोर्ट की रोक के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि भारत में किसी भी अधिकारी के लिए अंग्रेज़ी बोलना अनिवार्य नहीं है, खासकर हिंदी भाषी राज्यों में. संविधान और कानून दोनों ही अधिकारी को अपनी राजभाषा में कार्य करने की छूट देते हैं.

प्रशासन और न्यायपालिका को चाहिए कि वे भाषा के आधार पर भेदभाव न करें, बल्कि कार्यकुशलता और जनता के प्रति उत्तरदायित्व को प्राथमिकता दें. अंग्रेज़ी का ज्ञान उपयोगी है, लेकिन उसकी अनिवार्यता थोपना भारतीय लोकतंत्र और संविधान की मूल भावना के खिलाफ है.

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