यह सुनवाई न केवल राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों को परिभाषित करने में महत्वपूर्ण होगी, बल्कि यह भी तय करेगी कि क्या सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक प्रावधानों में समयसीमा जोड़ सकता है। जानिए इस मामले पर ताजा अपडेट।
सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा भेजे गए एक महत्वपूर्ण संदर्भ पर सुनवाई का शेड्यूल तय किया है। राष्ट्रपति ने सवाल उठाया है कि क्या न्यायालय राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को स्वीकृति देने के लिए राज्यपाल या राष्ट्रपति के लिए समयसीमा निर्धारित कर सकता है। इस मामले की सुनवाई पांच जजों की संविधान पीठ करेगी, जिसकी अध्यक्षता भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) बी.आर. गवई करेंगे। हालांकि तमिलनाडु और केरल राज्य ने राष्ट्रपति द्वारा उठाए गए सवालों का कड़ा विरोध किया है।
सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया है कि इस मामले में सुनवाई 19 अगस्त से शुरू होगी। कोर्ट ने सभी पक्षों को 12 अगस्त तक अपनी लिखित दलीलें दाखिल करने का आदेश दिया है। सीजेआई गवई ने अपने आदेश में कहा, “संदर्भ का समर्थन करने वाले पक्षों की सुनवाई 19, 20, 21 और 26 अगस्त को होगी। संदर्भ का विरोध करने वाले पक्षों की सुनवाई 28 अगस्त, 3 सितंबर, 4 सितंबर और 9 सितंबर को होगी। केंद्र सरकार की ओर से यदि कोई जवाबी दलील होगी, तो उसे 10 सितंबर को सुना जाएगा। समयसीमा का सख्ती से पालन किया जाएगा और वकीलों को अपने तर्क निर्धारित समय के भीतर समाप्त करने का हर संभव प्रयास करना होगा।”
तमिलनाडु-केरल का विरोध
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत यह संदर्भ सुप्रीम कोर्ट को भेजा था, जिसमें 14 सवाल उठाए गए हैं। ये सवाल सुप्रीम कोर्ट के अप्रैल 2025 के उस फैसले से संबंधित हैं, जिसमें कोर्ट ने राज्यपालों और राष्ट्रपति को विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए समयसीमा निर्धारित की थी और कहा था कि अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की निष्क्रियता न्यायिक समीक्षा के दायरे में आती है। तमिलनाडु और केरल ने इस संदर्भ की वैधता पर सवाल उठाते हुए इसे “अपील का छद्म रूप” करार दिया है।
तमिलनाडु सरकार ने अपनी याचिका में तर्क दिया कि राष्ट्रपति के संदर्भ में उठाए गए सवाल सुप्रीम कोर्ट के तमिलनाडु मामले में दिए गए फैसले में पहले ही स्पष्ट किए जा चुके हैं। राज्य ने कहा कि यह संदर्भ उस फैसले को पलटने की कोशिश है, जो कानूनन अनुचित है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट अपने ही फैसलों पर अनुच्छेद 143 के तहत पुनर्विचार नहीं कर सकता।
राज्य सरकार का कहना है कि यह राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट के अप्रैल 2025 के फैसले को “पुनः खोलने” का प्रयास है, जो कि न्यायिक प्रक्रिया के खिलाफ है। तमिलनाडु ने अपने आवेदन में दलील दी है कि यह संदर्भ, सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले “तमिलनाडु राज्य बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल” में तय किए गए मुद्दों को ही दोहराता है और इस तरह यह “अपील के रूप में छिपा प्रयास” है, जिसे संविधान और न्यायिक परंपरा अनुमति नहीं देते।
केरल ने भी इसी तरह की याचिका दायर की है, जिसमें कहा गया कि राष्ट्रपति संदर्भ में उठाए गए 14 में से 11 सवालों का जवाब पहले ही सुप्रीम कोर्ट के फैसलों में दिया जा चुका है। केरल ने तर्क दिया कि यह संदर्भ बाध्यकारी संवैधानिक फैसलों को “दबाने” की कोशिश है और इसे अस्वीकार किया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट का अप्रैल 2025 का ऐतिहासिक फैसला
अप्रैल 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने यह ऐतिहासिक फैसला सुनाया था कि राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों पर निर्णय लेने में अनिश्चितकालीन देरी नहीं हो सकती। न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति आर. महादेवन की पीठ ने कहा था कि राज्यपाल को अनुच्छेद 200 के तहत “उचित समय” में फैसला लेना अनिवार्य है। अनुच्छेद 200 में समयसीमा भले ही स्पष्ट नहीं हो, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि राज्यपाल अनंत काल तक बिल लटकाए रखें। इसने कहा कि अनुच्छेद 201 के अंतर्गत राष्ट्रपति को बिल पर निर्णय तीन महीने के भीतर लेना होगा और यदि देरी होती है तो उसका कारण राज्य सरकार को बताया जाना चाहिए। दोनों स्थितियों में न्यायिक समीक्षा की संभावना बनी रहती है।
राष्ट्रपति की आपत्ति
इस फैसले के बाद राष्ट्रपति ने 14 सवालों के साथ सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी, जिसमें यह पूछा गया कि क्या कोर्ट ऐसी समयसीमा निर्धारित कर सकता है। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने 13 मई 2025 को सुप्रीम कोर्ट को 14 सवाल भेजे और पूछा कि क्या सुप्रीम कोर्ट को ऐसा अधिकार है कि वह अनुच्छेद 200 और 201 में समयसीमा निर्धारित करे, जबकि संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। साथ ही “डीम्ड असेंट” यानी मानी गई स्वीकृति की अवधारणा को भी राष्ट्रपति ने सवालों के घेरे में रखा।
तमिलनाडु की और क्या आपत्ति?
राज्य ने यह दलील दी है कि अप्रैल के फैसले के बाद केवल एक महीने में यह संदर्भ लाया गया, जिससे स्पष्ट है कि इसका उद्देश्य अदालत के निर्णय को अप्रभावी बनाना है। राज्य ने कहा कि, “यह संदर्भ सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को पलटने के लिए लाया गया एक स्पष्ट प्रयास है… जो कि न्यायिक प्रणाली में स्वीकार्य नहीं है।” तमिलनाडु ने यह भी कहा कि अप्रैल के फैसले में प्रतिवादी रहे राज्यपाल ने न तो पुनर्विचार याचिका और न ही क्यूरेटिव याचिका दायर की है। फिर भी राष्ट्रपति द्वारा इस तरह का संदर्भ भेजना ‘अनुचित’ है।
क्या है अगला कदम?
इस मामले की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ कर रही है, जिसकी अध्यक्षता मुख्य न्यायाधीश गवई कर रहे हैं। उनके साथ जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिंह और जस्टिस अतुल चंदुरकर भी पीठ में शामिल हैं। इस सुनवाई में केंद्र सरकार की ओर से अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी और सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता कोर्ट की सहायता करेंगे। सभी राज्यों और केंद्र सरकार को नोटिस जारी कर जवाब मांगा गया है। अब देखना यह होगा कि क्या सुप्रीम कोर्ट अपने ही हालिया फैसले पर पुनर्विचार करेगा या तमिलनाडु और केरल की आपत्तियों को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रपति के संदर्भ को “बिना जवाब दिए” लौटा देगा।