होम राजनीति Bihar Chunav: शाम 7:30 से 11 बजे रात तक सेनारी में नरसंहार हुआ था, 34 लोगों को अगल-बगल बांधकर गला रेत दिया गया, तड़पते शरीरों का पेट चीरा गया

Bihar Chunav: शाम 7:30 से 11 बजे रात तक सेनारी में नरसंहार हुआ था, 34 लोगों को अगल-बगल बांधकर गला रेत दिया गया, तड़पते शरीरों का पेट चीरा गया

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पटना. 18 मार्च 1999 की वह काली रात जब बिहार के जहानाबाद (वर्तमान अरवल) जिले के सेनारी गांव में खौफनाक खूनी खेल खेला गया. यहां निर्दोष लोगों की खून की नदियां बहाई गईं. माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) के सैकड़ों नक्सलियों ने गांव को घेर लिया और भूमिहार समुदाय के 34 लोगों को घरों से खींचकर बेरहमी से गला रेतकर और पेट चीरकर मार डाला. इस नरसंहार का मंजर इतना भयावह था कि जो भी इसके बारे में जानना और समझना चाहता है उसके रोंगटे आज भी खड़े हो जाते हैं. यह केवल एक हत्याकांड नहीं था, बल्कि बिहार के जातीय संघर्ष, नक्सलवाद और सामंती व्यवस्था के टकराव की वो खौफनाक तस्वीर थी जिसने बिहार के समाज और सियासत को हमेशा के लिए बदल दिया. इसने बिहार के जनमानस को प्रभावित किया और न्याय की राह में तत्कालीन लालू प्रसाद यादव के संरक्षण में चल रही राबड़ी देवी सरकार के रुख को लेकर बार-बार सवाल उठे.

दरअसल, सेनारी नरसंहार बिहार के नरसंहारों में सबसे बड़ा और नृशंस नरसंहार है. लालू यादव के कार्यकाल के दौरान जंगलराज का वो भयावह सच है जिसकी जड़ों सींचने के आरोप उनपर लगे थे. 18 मार्च 1999 को रात करीब 7:30 बजे से 11 बजे तक सेनारी गांव में मौत का तांडव मचा था. करपी थाने के तहत आने वाले इस गांव में एमसीसी के 500-600 नक्सलियों ने गांव को चारों ओर से घेर लिया. जिन्होंने गांव को घेरा उनमें से कुछ पुलिस वर्दी में थे. यहां घरों से पुरुषों, महिलाओं और बुजुर्गों को खींचकर ठाकुरबाड़ी के पास लाया गया. वहां तीन समूहों में बांटकर एक-एक व्यक्ति का गला धारदार हथियारों से काटा गया और तड़पते शरीरों का पेट चीरा गया. इस क्रूरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मरने वालों में कई नौजवान और बुजुर्ग शामिल थे और गांव में सन्नाटा छा गया. इसके पीड़ित एक गवाह ने बताया कि वह शवों के ढेर में सांस रोककर पड़ा रहा तभी उसकी जान बची. इस नरसंहार ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था.

बढ़ते जातीय ध्रुवीकरण ने लिया संघर्ष का रूप

सेनारी गांव में सवर्ण और दलित आपस में शांतिपूर्वक रहते थे और यहां नक्सल गतिविधियां कम थीं. फिर भी एमसीसी ने इसे निशाना बनाया, क्योंकि यह बदले की कार्रवाई थी. यह हिंसा का वह चक्र था जिसमें रणवीर सेना और नक्सलियों ने एक-दूसरे के खिलाफ क्रूर हमले किए. इसकी जड़ में बिहार की सामंती व्यवस्था, भूमि सुधारों की विफलता और लालू प्रसाद यादव के शासनकाल में बढ़ता जातीय ध्रुवीकरण था. सेनारी नरसंहार भी बिहार में 1990 के दशक के जातीय और नक्सल हिंसा का परिणाम था. यह 25 जनवरी 1999 को शंकर बिगहा और 10 फरवरी 1999 को नारायणपुर नरसंहारों का प्रत्यक्ष बदला था, जिनमें दलितों को निशाना बनाया गया था. इन नरसंहारों का आरोप रणवीर सेना पर लगा था.

1990 के दशक में लालू प्रसाद यादव पर जातीय संघर्ष को बढ़ावा देने के आरोप लगे थे. लोकसभा में भी उठा था बिहार के सेनारी नरसंहार का मुद्दा.

जातीय संघर्ष के पीछे राजनीतिक रणनीति

लालू यादव के शासनकाल में ‘सामाजिक न्याय’ की बात कर जातीय संघर्ष की आग लहकाई जाती रही. इसी दौर में भूस्वामियों में असुरक्षा बढ़ी जिसने हिंसा को बढ़ावा दिया. दरअसल, बिहार में भूमि असमानता और सामंती शोषण ने दलितों और भूमिहीन मजदूरों में असंतोष को जन्म दिया था. इसे नक्सलवादी संगठनों जैसे- एमसीसी और सीपीआई (एमएल) ने हवा दी और लालू यादव के कार्यकाल में राजनीतिक संरक्षण मिला. जानकार कहते हैं कि बहुत हद तक यह लालू यादव की उस रणनीति का हिस्सा थी जिससे वह और उनका परिवार लंबे समय तक बिहार की सत्ता में बने रहे. इसके लिए एमसीसी और सीपीआई एमएल को ताकत देने के आरोप लालू यादव पर लगे. ये संगठन भूमिहारों और राजपूतों जैसे भूस्वामी वर्गों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष छेड़ रहे थे. इसके जवाब में भूस्वामियों ने रणवीर सेना बनाकर नक्सलियों और उनके समर्थकों से टक्कर लेनी शुरू की. आरोप तो यह भी लगे कि रणवीर सेना को भी लालू यादव के कार्यकाल में संरक्षण मिला था. यानी जातीय संघर्ष की पृष्ठभूमि में पूरी तरह से राजनीति थी.

राजनीति ने ‘आग’ को हवा दी और समाज टूटता गया

सेनारी नरसंहार ने बिहार की राजनीति और समाज को बहुत गहराई तक प्रभावित किया. यह लालू-राबड़ी शासन के दौरान हुआ जिसे ‘जंगलराज’ करार देकर विपक्षी दलों, विशेष रूप से बीजेपी और जद(यू) ने सरकार की नाकामी जगजाहिर की. बीजेपी नेता सुशील कुमार मोदी (दिवंगत) ने आरोप लगाया कि लालू ने रणवीर सेना और एमसीसी दोनों को संरक्षण देकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकीं. एक शासन व्यवस्था कैसे, ऐसे जातीय संघर्ष को बढ़ावा दे सकती है, यह लालू यादव और राबड़ी देवी के कार्यकाल में प्रत्यक्ष दिखा भी था. दरअसल, दलितों के खिलाफ हुए नरसंहारों (जैसे शंकर बिगहा) में उनकी सरकार ने त्वरित कार्रवाई की, लेकिन सेनारी और बारा नरसंहार जैसे मामलों में उनकी चुप्पी ने उनकी मंशा पर सवाल उठाए.

लालू यादव के शासनकाल में जातीय नरसंहारों के कारण बिहार के सवर्णों का गांव से पलायन बढ़ता गया. सेनारी गांव के एक ऐसे ही घर की तस्वीर जहां कोई नहीं रहता.

बिहार के लोगों में ‘जातीय जहर’ भर दिया गया

1990 का दशक सामाजिक रूप से बिहार के लिए बेहद खौफनाक का रहा है. यहां जातीय नरसंहारों ने सामाजिक समरसता वाले बिहार के लोगों में जातीय जहर भर दिया. लगातार हो रहे नरसंहारों ने बिहार में जातीय तनाव को चरम पर पहुंचा दिया. सवर्ण और दलितों के बीच अविश्वास की खाई इतनी गहरी हो गई कि एक दूसरे का आमना-सामना करने से लोग कतराने लगे. इसी दौर में खेतिहर भूमिहार समुदाय में भय और गुस्सा बढ़ा. सेनारी ने हिंसा के इस चक्र को और तेज किया जिससे गांवों में अविश्वास और डर का माहौल बन गया. कई भूमिहार परिवार गांव छोड़कर शहरों में चले गए. नक्सलियों को इस घटना से समर्थन मिला, क्योंकि दलित और पिछड़े समुदायों ने इसे सामंती उत्पीड़न के खिलाफ विद्रोह माना.

जाति का ही नहीं कानून और न्याय का भी ‘नरसंहार’

सेनारी नरसंहार के बाद पुलिस ने 19 मार्च 1999 को करपी थाने में केस दर्ज किया. कुल 70 लोग आरोपी बनाए गए जिनमें से चार की मौत हो चुकी थी. वर्ष 2016 में जहानाबाद जिला अदालत ने 15 अभियुक्तों को दोषी ठहराया, जिनमें 11 को फांसी और तीन को उम्रकैद की सजा सुनाई गई. पीड़ितों के परिजनों को पांच-पांच लाख रुपये मुआवजा देने का आदेश भी दिया गया. हालांकि, 21 मई 2021 को पटना हाईकोर्ट ने साक्ष्य की कमी का हवाला देकर सभी 14 दोषियों को बरी कर दिया. बिहार सरकार ने इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने की घोषणा की, लेकिन इसका कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आया. इस फैसले ने बिहार में न्याय व्यवस्था पर सवाल उठाए. पीड़ितों के परिजनों ने इसे ‘न्याय का नरसंहार’ करार दिया. गवाहों की सुरक्षा की कमी, पुलिस की लापरवाही और राजनीतिक दबाव ने इस मामले को कमजोर किया. यह बिहार में अन्य नरसंहारों जैसे- लक्ष्मणपुर-बाथे और बथानी टोला की तरह था जहां दोषी अक्सर बरी हो गए.

बिहार के सेनारी नरसंहार और अन्य सामूहिक हत्याकांड को बिहार चुनाव में मुद्दा बना रहा है एनडीए.

बिहार के समाज में जातीय ध्रुवीकरण को और गहरा किया

सेनारी नरसंहार ने बिहार के सामाजिक ढांचे पर गहरा प्रभाव डाला. इसने जातीय ध्रुवीकरण को और गहरा किया जिससे सवर्ण और दलित समुदायों के बीच अविश्वास बढ़ता गया. गांवों में सामाजिक ताने-बाने टूट गये और हजारों परिवारों ने पलायन किया. नक्सलवादी आंदोलन को इस घटना से बल मिला, क्योंकि दलित और पिछड़े समुदायों ने इसे सामंती व्यवस्था के खिलाफ जीत माना. खास बात यह कि लालू यादव और रामविलास पासवान जैसे नेताओं ने इसे सामाजिक न्याय की राजनीति से जोड़ा जिसने दलितों को संगठित किया. हालांकि, यह भी सच है कि इस हिंसा ने बिहार की छवि को ‘जंगलराज’ के रूप में बदनाम किया, जिसका असर आज भी चुनावी राजनीति में देखा जाता है. सेनारी और अन्य नरसंहारों ने बिहार में कानून-व्यवस्था की कमजोरियों को खोलकर रख दिया जिसके परिणामस्वरूप पुलिस और प्रशासन में सुधार की मांग बढ़ी.

 बिहार के समाज में भय, अविश्वास और पलायन बढ़ाया

सेनारी नरसंहार बिहार के जातीय और नक्सल हिंसा के सबसे भयावह अध्यायों में से एक है. एमसीसी द्वारा 34 भूमिहारों की निर्मम हत्या शंकर बिगहा और नारायणपुर नरसंहारों का बदला थी. इसने बिहार में जातीय तनाव को चरम पर पहुंचाया और लालू सरकार की नाकामी को उजागर किया. हाईकोर्ट ने सभी दोषियों की रिहाई के आदेश दिये तो न्याय व्यवस्था पर सवाल उठे. इस घटना ने बिहार के समाज में भय, अविश्वास और पलायन को बढ़ाया. सेनारी आज भी बिहार के लिए एक सबक है कि जातीय और सामंती हिंसा का अंत केवल सामाजिक-आर्थिक सुधारों और निष्पक्ष न्याय से ही संभव है.

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