बढ़ते जातीय ध्रुवीकरण ने लिया संघर्ष का रूप
1990 के दशक में लालू प्रसाद यादव पर जातीय संघर्ष को बढ़ावा देने के आरोप लगे थे. लोकसभा में भी उठा था बिहार के सेनारी नरसंहार का मुद्दा.
जातीय संघर्ष के पीछे राजनीतिक रणनीति
राजनीति ने ‘आग’ को हवा दी और समाज टूटता गया

लालू यादव के शासनकाल में जातीय नरसंहारों के कारण बिहार के सवर्णों का गांव से पलायन बढ़ता गया. सेनारी गांव के एक ऐसे ही घर की तस्वीर जहां कोई नहीं रहता.
बिहार के लोगों में ‘जातीय जहर’ भर दिया गया
1990 का दशक सामाजिक रूप से बिहार के लिए बेहद खौफनाक का रहा है. यहां जातीय नरसंहारों ने सामाजिक समरसता वाले बिहार के लोगों में जातीय जहर भर दिया. लगातार हो रहे नरसंहारों ने बिहार में जातीय तनाव को चरम पर पहुंचा दिया. सवर्ण और दलितों के बीच अविश्वास की खाई इतनी गहरी हो गई कि एक दूसरे का आमना-सामना करने से लोग कतराने लगे. इसी दौर में खेतिहर भूमिहार समुदाय में भय और गुस्सा बढ़ा. सेनारी ने हिंसा के इस चक्र को और तेज किया जिससे गांवों में अविश्वास और डर का माहौल बन गया. कई भूमिहार परिवार गांव छोड़कर शहरों में चले गए. नक्सलियों को इस घटना से समर्थन मिला, क्योंकि दलित और पिछड़े समुदायों ने इसे सामंती उत्पीड़न के खिलाफ विद्रोह माना.
जाति का ही नहीं कानून और न्याय का भी ‘नरसंहार’

बिहार के सेनारी नरसंहार और अन्य सामूहिक हत्याकांड को बिहार चुनाव में मुद्दा बना रहा है एनडीए.
बिहार के समाज में जातीय ध्रुवीकरण को और गहरा किया
सेनारी नरसंहार ने बिहार के सामाजिक ढांचे पर गहरा प्रभाव डाला. इसने जातीय ध्रुवीकरण को और गहरा किया जिससे सवर्ण और दलित समुदायों के बीच अविश्वास बढ़ता गया. गांवों में सामाजिक ताने-बाने टूट गये और हजारों परिवारों ने पलायन किया. नक्सलवादी आंदोलन को इस घटना से बल मिला, क्योंकि दलित और पिछड़े समुदायों ने इसे सामंती व्यवस्था के खिलाफ जीत माना. खास बात यह कि लालू यादव और रामविलास पासवान जैसे नेताओं ने इसे सामाजिक न्याय की राजनीति से जोड़ा जिसने दलितों को संगठित किया. हालांकि, यह भी सच है कि इस हिंसा ने बिहार की छवि को ‘जंगलराज’ के रूप में बदनाम किया, जिसका असर आज भी चुनावी राजनीति में देखा जाता है. सेनारी और अन्य नरसंहारों ने बिहार में कानून-व्यवस्था की कमजोरियों को खोलकर रख दिया जिसके परिणामस्वरूप पुलिस और प्रशासन में सुधार की मांग बढ़ी.
बिहार के समाज में भय, अविश्वास और पलायन बढ़ाया
सेनारी नरसंहार बिहार के जातीय और नक्सल हिंसा के सबसे भयावह अध्यायों में से एक है. एमसीसी द्वारा 34 भूमिहारों की निर्मम हत्या शंकर बिगहा और नारायणपुर नरसंहारों का बदला थी. इसने बिहार में जातीय तनाव को चरम पर पहुंचाया और लालू सरकार की नाकामी को उजागर किया. हाईकोर्ट ने सभी दोषियों की रिहाई के आदेश दिये तो न्याय व्यवस्था पर सवाल उठे. इस घटना ने बिहार के समाज में भय, अविश्वास और पलायन को बढ़ाया. सेनारी आज भी बिहार के लिए एक सबक है कि जातीय और सामंती हिंसा का अंत केवल सामाजिक-आर्थिक सुधारों और निष्पक्ष न्याय से ही संभव है.