महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस ने राज्य के स्कूलों में हिन्दी पढ़ाने को लेकर जारी किया गया आदेश फिलहाल रद्द कर दिया है.
महाराष्ट्र की राज्य सरकार ने स्कूलों में हिन्दी पढ़ाने को लेकर निकाले गए आदेश को वापस ले लिया है. राज्य के विपक्षी दलों समेत अनेक संगठनों ने हाल के दिनों में इसे लेकर भारी विरोध दर्ज कराया. आगामी पांच जुलाई को विपक्ष ने मार्च निकालने का भी फैसला दोहराया था. माना जा रहा है कि राज्य सरकार ने यह फैसला राज्य के अंदर उठ रही आवाजों को मंद करने के इरादे से लिया है. मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस, दोनों उप-मुख्यमंत्री गण अजित पवार और एकनाथ शिंदे ने घोषणा की है कि इस मुद्दे पर जारी आदेश फिलहाल रद किया जा रहा है. सरकार ने इसके लिए एक कमेटी गठित कर दी है. उसकी रिपोर्ट आने के बाद इस मसले पर फैसला लिया जाएगा.
देश में ट्राई लैंग्वेज पॉलिसी विवाद नया नहीं है. अक्सर इसे लेकर किसी न किसी राज्य में कुछ न कुछ विवाद उठता ही रहा है. दक्षिण भारत के राज्यों में यह बेहद आम है. वर्षों से यह विरोध देखा जा रहा है. साल 2020 में जब नई शिक्षा नीति लागू हुई तो उसमें भी ट्राई लैंग्वेज पॉलिसी पर जोर दिया गया है. जब यह पॉलिसी लागू हुई तो कोरोना चल रहा था. धीरे-धीरे जब कोरोना गायब हुआ तो पॉलिसी पर देश भर के विश्वविद्यालयों में सेमीनार आदि के माध्यम से जागरूकता अभियान चलाए गए. इसी के बाद एक बार फिर से विरोध की सुगबुगाहट शुरू हो गयी. छिटपुट बयानबाजी आदि भी सामने आयी.
जब बीते अप्रैल महीने में महाराष्ट्र सरकार ने हिन्दी को तीसरी भाषा के रूप में स्कूली शिक्षा में शामिल करने का आदेश दिया तो एक बार फिर यह विरोधी जिन्न बाहर आ गया. फिलहाल उन्हें कामयाबी भी मिल गयी है. अब देखना रोचक होगा कि इस मामले के लिए बनी कमेटी क्या रिपोर्ट देती है? अगर वह हिन्दी भाषा को लागू करने की वकालत करती है तो राज्य सरकार का क्य रुख होगा? यह देखना रोचक होगा. अगर रिपोर्ट ठंडे बस्ते में चली गई तो बात कुछ और ही होगी.

महाराष्ट्र्र्र में मचा भाषाई बवाल
क्या है ट्राई लैंग्वेज पॉलिसी?
न्यू एजुकेशन पॉलिसी 2020 कहती है कि देश के सभी सरकारी एवं निजी स्कूलों में तीन भाषाएं अनिवार्य रूप से सिखाई जाएंगी. इनमें दो भारतीय भाषाएं एवं एक अन्य भाषा होगी. प्राइमरी भाषा स्थानीय रहेगी. हिन्दी के विरोधी राज्यों को हमेशा से लगता है कि इस पॉलिसी में दो भारतीय भाषाओं में एक स्थानीय भाषा है तो दूसरी हिन्दी है. तीसरी अन्य भाषा के रूप में अंग्रेजी के बारे में स्वीकार्यता है.
ऐसे में उसे लेकर कोई न तो सवाल उठता है और न ही विरोध सामने आता है. दक्षिण से लेकर पूर्वोत्तर राज्यों को अंग्रेजी और स्थानीय भाषाओं से दिक्कत नहीं है. पर, जैसे ही उन्हें लगता है कि तीसरी भाषा के रूप में हिन्दी आने को है, विरोध शुरू हो जाता है.
ट्राई लैंग्वेज पॉलिसी विवाद का विरोध क्यों करते हैं राज्य?
1- तमिलनाडु अरसा से करता आ रहा है हिन्दी का विरोध
तमिलनाडु जैसे दक्षिण भारतीय राज्य में हिन्दी का विरोध लगातार बना हुआ है. उन्हें हरदम लगता है कि केंद्र सरकार हिन्दी को हम पर जबरन थोपना चाहती है. इसलिए जैसे ही कहीं से भाषा को लेकर सुगबुगाहट होने लगती है तो साथ-साथ विरोध भी सामने आ ही जाता है. विरोध करने वाले राजनीतिक-सामाजिक संगठनों का तर्क है कि त्रिभाषा नीति के तहत हिंदी को अनिवार्य बनाना स्थानीय भाषाओं और पहचान को खतरे में डालने जैसा है. और यह किसी को मंजूर नहीं है.
विरोध की मूल वजह यही है. इसी पर समय-समय पर अलग-अलग रंग अपनी सुविधा के अनुरूप चढ़ाकर संगठन आंदोलन को चमकाते रहते हैं. इसका उन्हें फायदा भी मिलता है तो उत्साह भी बाढ़ जाता है.

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन अक्सर हिन्दी को लेकर विरोध जताते रहे हैं.
2- भाषा के मामले में समृद्ध हैं छोटे आकार के पूर्वोत्तर वाले राज्य
पूर्वोत्तर के राज्य आबादी और साइज़ में भले ही छोटे-छोटे हैं लेकिन भाषा के माले में वे खासे समृद्ध हैं. ऐसे में उन्हें आशंका सताती रहती है कि अगर त्रिभाषा फार्मूला अनिवार्य रूप से लागू होता है तो उनकी स्थानीय भाषा, अंग्रेजी तो रहेगी ही, तीसरी भाषा के रूप में सरकार हिन्दी थोप देगी और ऐसा होने से उनकी भाषायी विविधता की अनदेखी हो जाएगी. वे यह भी मानते हैं कि एक नीति से सभी राज्यों पर एक जैसा दबाव बनाना सांस्कृतिक विविधता के खिलाफ माना होगा. लोग स्पष्ट मानते हैं कि हर राज्य की अपनी भाषाई प्राथमिकता हर हाल में होनी चाहिए. इसमें किसी तरह की छेड़छाड़ या सरकारी दखलंदाजी उचित नहीं.
3- बच्चों पर अतिरिक्त बोझ की आशंका से इनकार नहीं
इसका विरोध करने वाले राज्यों के मन में आशंका है कि इससे स्कूली बच्चों पर अतिरिक्त दबाव बढ़ेगा. अगर त्रिभाषा फार्मूला लागू होता है तो बच्चों की शिक्षा पर सीधा निगेटिव असर पड़ेगा. मानसिक और शैक्षिक रूप से वे दबाव महसूस करेंगे और इसका सीधा असर उनके परीक्षा परिणामों के साथ ही जिंदगी में आने वाले इम्तहानों पर भी पड़ेगा. खास तौर पर ग्रामीण इलाकों में संचालित सरकारी स्कूलों पर इसका बेहद बुरा प्रभाव देखा जाएगा. क्योंकि वहां शिक्षक से लेकर जरूरी संसाधन पहले से ही कम हैं. अगर हिन्दी को तीसरी भाषा के रूप में मान लिया जाए तो बड़े पैमाने पर शिक्षकों की भर्ती भी करना होगा, जो किसी भी राज्य सरकार के लिए एकदम आसान नहीं होगा.

महाराष्ट्र के स्कूलों में हिंदी तीसरी भाषा नहीं होगी.
4- रोजगार या व्यावसायिक जरूरतों पर कोई निगेटिव असर नहीं
हर राज्य की अपनी जरूरतें हैं. रोज़गार और व्यावसायिक ज़रूरतें भी सबकी अलग-अलग हैं. इसी वजह से कुछ राज्य अंग्रेज़ी के साथ ही क्षेत्रीय भाषा को प्राथमिकता देते हैं. क्योंकि उनके यहां हिंदी भाषी राज्यों की तरह हिंदी का रोज़मर्रा में उपयोग नहीं होता. ऐसे में हिंदी सीखना प्रैक्टिकल नहीं लगता. इस चक्कर में उनका नुकसान हो सकता है. अगर नुकसान को इग्नोर करके एक बार हिन्दी सीखना शुरू भी कर दें तो उसका रोजगार और नौकरी में बहुत फायदा नहीं होने वाला. अगर वे स्थानीय स्तर पर रोजगार करते हैं तो उनका काम स्थानीय भाषा से चल जाता है और अगर कहीं घर से दूर दूसरे राज्य में किन्हीं कारणों से जाना है तो अंग्रेजी वहां सहारे के रूप में सामने मिलती है.
5- क्षेत्रीय स्वाभिमान पर आघात
दक्षिण भारत हो, पूर्वी या पश्चिमी भारत हो, भाषा को राजनीतिक और क्षेत्रीय अस्मिता से जोड़ दिया गया है. स्थानीय भाषा को एक सांस्कृतिक पहचान की तरह देखने की परंपरा है. यह अपने आप में विरोध का बड़ा कारण है. उत्तर प्रदेश के पूर्वी हिस्से में एक कहावत कही जाती है. कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी. इसका मतलब यह है कि भारत के बहुत बड़ा और विविधताओं से भरा देश है.
यहां हर किलो मीटर-दो किलो मीटर पर पानी के स्वाद में बदलाव महसूस किया जाता है और हर चार-पांच किलो मीटर पर वाणी-भाषा भी बदल जाती है. और इनकी सबकी अपनी विशिष्टताएं हैं. इसलिए कोई भी ऐसी नीति जो बाहरी भाषा को अनिवार्य बनाए, वह क्षेत्रीय स्वाभिमान पर आघात मानी जाती है. विरोध के बड़े कारणों में से एक है.
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