काशी के कोतवाल के महाराष्ट्र की पंढरपुर वारी यात्रा तक, देश में कई हिस्सों में देव यात्रा निकाली जाती है.
ओडिशा के पुरी में भगवान जगन्नाथ रथयात्रा महोत्सव का आयोजन किया जा रहा है. यह सबसे प्रमुख रथयात्रा होती है. देश के अन्य हिस्सों में भी इसका आयोजन होता है. इसके अलावा भी देश में कई तरह की यात्राएं निकाली जाती हैं. इनमें काल भैरव से लेकर दुर्गा और गणेश प्रतिमा विसर्जन तक की यात्राएं शामिल हैं. आइए जान लेते हैं कि भारत में कितनी तरह की यात्राएं निकाली जाती हैं और क्या है इनकी कहानी?
भगवान जगन्नाथ रथयात्रा कब और कैसे शुरू हुई, इस संबंध में कई कथाएं प्रचलित हैं. बताया जाता है कि राजा इंद्रद्युम ने जब विशेष लकड़ी से भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और बहन सुभद्रा की मूर्तियां बनवानी शुरू की तो भगवान विश्वकर्मा ने शर्त रखी थी कि कोई इन मूर्तियों को बनते हुए न देखे पर रानी गुंडिचा ने मूर्तिकार और मूर्तियों को बनते देख लिया. इसके कारण विश्वकर्मा अदृश्य हो गए और मूर्तियां अधूरी रह गईं. इसके बाद राजा ने अधूरी मूर्तियों को ही जगन्नाथ मंदिर में स्थापित कर दिया. तब आकाशवाणी हुई कि साल में एक बार भगवान जगन्नाथ अपनी जन्मभूमि मथुरा जरूर आएंगे. स्कंदपुराण के उत्कल खंड में बताया गया है कि राजा इंद्रद्युम ने आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को भगवान के जन्मभूमि जाने की व्यवस्था की थी. तभी से रथयात्रा के रूप में यह परंपरा चली आ रही है.
एक और कथा है कि सुभद्रा ने द्वारिका दर्शन की इच्छा जताई थी. इस पर श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा ने अलग-अलग रथों में बैठकर पूरे नगर की यात्रा की थी. इस यात्रा के दौरान तीनों अपनी मौसी गुंडिचा के यहां सात दिनों तक रुके थे. इसलिए यह रथयात्रा पुरी में हर साल निकाली जाती है. यह यात्रा पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर से शुरू होकर गुंडिचा मंदिर तक जाती है, जहां तीनों भाई बहन सात दिनों तक विश्राम करते हैं उसके बाद वापसी की यात्रा होती है.

58 दिनों में तैयार हुए 45 फीट के तीनों रथों को बनाने की शुरुआत अक्षय तृतीया से होती है.
एक और कथा यह है कि बार श्रीकृष्ण से मिलने राधारानी कुरुक्षेत्र पहुंची और उनसे वृंदावन आने का निवेदन किया था. उनके निवेदन पर श्रीकृष्ण भाई बलराम और बहन सुभद्रा के साथ वृंदावन गए थे. इस पर वृंदावन के लोगों को इतनी प्रसन्नता हुई कि तीनों को रथ पर विराजमान कर घोड़े हटा दिए और खुद रथ को अपने हाथों से खींचकर पूरे नगर का भ्रमण कराया था. तभी वृंदावन के लोगों ने श्रीकृष्ण को जग के नाथ यानी जगन्नाथ कह कर उनकी जयकार की थी. यह परंपरा तभी से वृंदावन के साथ ही जगन्नाथ मंदिर में भी प्रारंभ हो गई.
नगर भ्रमण पर निकलते हैं काशी के कोतवाल
पौराणिक कथाओं में बताया गया है कि एक बार ब्रह्मा, विष्णु और महेश में सर्वश्रेष्ठता की बहस हो गई. तीनों खुद को दूसरे से श्रेष्ठ बताते रहे. फिर यह दायित्व ऋषि-मुनियों को सौंपा गया कि वे बताएं कौन श्रेष्ठ है. इस पर भगवान शिव को सर्वश्रेष्ठ बताया गया. इससे ब्रह्मा जी क्रोधित हो गए और उनका एक सिर क्रोध से जलने लगा. इस दौरान उन्होंने शिव शंकर का अपमान भी किया. इससे क्रोधित होकर भोलेनाथ रौद्र रूप में आ गए, जिससे काल भैरव प्रकट हुए और ब्रह्मा जी का घमंड चूर करने के लिए उनके जलते सिर को काट दिया. इससे काल भैरव पर ब्रह्म हत्या का दोष लग गया तो शिव ने उनको तीर्थों का भ्रमण करने के लिए कहा.

काल भैरव को काशी का कोतवाल कहा जाता है.
पृथ्वी लोक के तीर्थों का भ्रमण कर वे काशी पहुंचे और ब्रह्म हत्या के दोष से मुक्त हुए. वहीं पर काल भैरव कोतवाल के रूप में विराजे. यहां मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष की अष्टमी को भैरव अष्टमी मनाई जाती है और काशी के कोतवाल कालभैरव नगर भ्रमण पर निकलते हैं. इसी यात्रा को काल भैरव यात्रा के रूप में जाना जाता है.
महाराष्ट्र में पंढरपुर वारी यात्रा
महाराष्ट्र में विट्ठल-रुक्मिणी मंदिर में भगवान विट्ठल वास्तव में भगवान कृष्ण के ही एक रूप में पूजे जाते हैं. इस मंदिर के गर्भगृह में भगवान विट्ठल ईंट पर खड़े होकर भक्त पुंडरीक की प्रतीक्षा करते दर्शन देते हैं. आषाढ़ शुक्ल एकादशी को पंढरपुर में यात्रा निकाली जाती है, जिसे पंढरपुर वारी यात्रा के नाम से जाना जाता है.
राधारानी के साथ भगवान विट्ठल और रुक्मिणी की मूर्तियों को इस यात्रा में शामिल किया जाता है. इससे पहले हजारों हजारों वारकरी लगभग 21 दिनों तक 250 किलोमीटर की पदयात्रा कर अलंदी और देहू से पंढरपुर पहुंचते हैं. इस दौरान वे संत ज्ञानेश्वर और संत तुकाराम की पादुकाएं पालकी में लेकर गीत गाते हुए चलते हैं.

पंढरपुर वारी यात्रा का आयोजन 800 सालों से हो रहा है.
पंढरपुर पहुंचने के बाद चंद्रभागा नदी में स्नान करते हैं और परिक्रमा पूरी करते हैं. आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा को यह उत्सव समाप्त होता है. बताया जाता है कि इस यात्रा का आयोजन पिछले 800 सालों से होता आया है. इसमें बार-बार शामिल होने वालों को ही वारकरी कहा जाता है.
सबरीमाला यात्रा
केरल में भगवान अयप्पा के पवित्र आभूषण तिरुवभरणम के लिए वार्षिक शोभायात्रा निकाली जाती है. यह यात्रा पंडलम स्थित मंदिर से सबरीमाला तक जाती है. इससे पहले तिरुवभरणम को पंडलम के श्रमबिकल महल के स्ट्रांग रूम से निकाला जाता है और पास के वलियाकोइक्कल मंदिर में रखा जाता है. श्रद्धालु यहां इन आभूषणों के दर्शन करते हैं.
सबरीमाला मंदिर की शीर्ष संस्था टीडीबी के प्रतिनिधि और बड़ी संख्या में श्रद्धालु भी तिरुवभरणम घोषयात्रा में शामिल होते हैं. इस दौरान टीडीबी के अधिकारी श्रमबिकल महल के अधिकारियों से आभूषण प्राप्त करते हैं. उन्हें वलियाकोइक्कल मंदिर तक ले जाते हैं. वहां श्रद्धालु इनके दर्शन और पूजा-अर्चना करते हैं. फिर मंत्रोच्चार और पारंपरिक अनुष्ठानों के बाद इन आभूषणों को लकड़ी के बक्सों में रखा जाता है. लोगों का एक समूह अपने सिर पर इन बक्सों को लेकर रवाना होता है और तीन दिन बाद यह सबरीमाला पहुंचता है. वहां ये आभूषण मकरविलक्कु त्योहार के दिन भगवान अयप्पा को पहनाए जाते हैं.
श्रीराम नवमी शोभायात्रा
श्रीराम नवमी यानी चैत्र की नवमी को भगवान राम का जन्मदिन मनाया जाता है. इस मौके पर भगवान राम की जन्मभूमि अयोध्या से लेकर देश भर में शोभायात्राएं और जुलूस निकाले जाते हैं. इनमें भगवान राम, लक्ष्मण, सीता के साथ ही अन्य देवी-देवताओं की झांकियां सजाई जाती हैं. इस शोभायात्रा की शुरुआत कब और कैसे हुई, इसके बारे में कोई प्रमाणिक तथ्य उपलब्ध नहीं हैं पर देश भर के मंदिरों और घरों में चैत्र के शुक्ल पक्ष की नवमी को भगवान राम की आराधना की जाती है.

अयोध्या समेत देश अलग-अलग हिस्सों में राम नवमी पर यात्रा निकाली जाती है.
अयोध्या समेत देश भर में राम दरबार की झांकियों के साथ निकलने वाली शोभायात्रा को राम रथ यात्रा भी कहा जाता है. इसी तरह से भगवान श्रीकृष्ण की जन्मतिथि श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के रूप में मनाई जाती है. मान्यता है कि भाद्रपद में कृष्ण पक्ष की अष्टमी को श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा में हुआ था. इस दिन मंदिरों और घरों में श्रीकृष्ण की झांकियां सजाई जाती हैं और बाल गोपाल रूप में उनकी पूजा की जाती है. कई स्थानों पर श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर यात्राएं भी निकाली जाती हैं.
गणेश विसर्जन यात्रा
पश्चिम बंगाल में दुर्गा पूजा की ही तरह महाराष्ट्र में गणेशोत्सव का आयोजन किया जाता है. बताया जाता है कि छत्रपति शिवाजी महाराज ने सबसे पहले पुणे में गणेशोत्सव की शुरुआत की थी. 18वीं सदी में पेशवा ने भी सार्वजनिक रूप से गणेशोत्सव मनाना शुरू किया. हालांकि, अंग्रेजों के शासनकाल में गणेशोत्सव कुछ समय तक रुका रहा. स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक ने इस महोत्सव को फिर से शुरू किया. वास्तव में 1892 में बनाए गए अंग्रेजों के एक नियम के तहत भारतीयों को एक जगह इकट्ठा होने पर मनाही थी. इसलिए तिलक ने इस महोत्सव के जरिए भारतीयों को इकट्ठा कर राष्ट्रवाद की भावना जगाने की पहल की. तबसे यह उत्सव अनवरत चला आ रहा है.
भाद्रपद मास में यह उत्सव मनाया जाता है. इसके तहत जगह-जगह पंडालों और घरों में गणेश जी की प्रतिमाएं स्थापित की जाती हैं और 10 दिनों तक विधिविधान के साथ उनकी पूजा होती है. इसके बाद उनकी प्रतिमा का विसर्जन किया जाता है. पौराणिक मान्यता भी है कि गणेश चतुर्थी पर गजानन की प्रतिमा लाकर 10 दिनों तक विधिपूर्वक पूजा कर अनंत चतुर्थी के दिन विसर्जन करने से भक्तों के दुख दूर हो जाते हैं. प्रतिमा विसर्जन के लिए भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है. महाराष्ट्र से निकल कर अब यह त्योहार देश भर में फैल चुका है.

गणपति विसर्जन यात्रा.
रथ सप्तमी यात्रा
रथ सप्तमी यात्रा विशेष रूप से आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में निकाली जाती है. यह भगवान सूर्य की उपासना का पर्व है. मान्यता है कि रथ सप्तमी को भगवान सूर्य अपने रथ में सात घोड़े जोतकर उसे उत्तर दिशा में चलाना शुरू करते हैं. यह भी माना जाका है कि इसी दिन से भगवान सूर्य ने पूरे संसार को ज्ञान देना शुरू किया था. इसे सूर्य के जन्म उत्सव के रूप में भी मनाया जाता है. आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में रथ सप्तमी यानी माघ शुक्ल पक्ष की सप्तमी पर विशेष यात्रा निकाली जाती है तो देश के अन्य हिस्सों में इस दिन सूर्य की विशेष आराधना की जाती है. इस उत्सव को ऋतु परिवर्तन का प्रतीक भी माना जाता है.
दुर्गा विसर्जन शोभायात्रा
शारदीय नवरात्र में देवी दुर्गा की प्रतिमाओं की स्थापना कर धूमधाम से पूजा की जाती है. इसके बाद इन प्रतिमाओं का विर्सजन किया जाता है. इससे पहले भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है और पंडाल से विसर्जन स्थल तक भक्त नाचते-गाते देवी दुर्गा की प्रतिमा लेकर जाते हैं और जल प्रवाहित करते हैं. यह त्योहार मुख्य रूप से पश्चिम बंगाल में मनाया जाता है, जिसे दुर्गा पूजा के नाम से जाना जाता है. बंगाल में इसे दुर्गोत्सव या शारदोत्सव भी कहते हैं. राक्षस महिषासुर पर देवी दुर्गा की जीत के स्वरूप इसका आयोजन होता है.
महीनों से देवी दुर्गा की स्थापना के लिए पंडाल बनाने की शुरुआत हो जाती है. कई पंडाल थीम पर आधारित होते हैं. शारदीय नवरात्र की षष्ठी को पंडाल में विराजमान माता के दर्शन शुरू होकर नवमी तक चलते हैं. दशमी को दुर्गा प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है. हालांकि, अब बंगाल के अलावा देश के अन्य हिस्सों में भी दुर्गा पूजा का धूमधाम से आयोजन किया जाने लगा है.
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