होम नॉलेज जब संविधान-कानून तोड़ा-मरोड़ा गया, अधिकार छीने गए, जानें आपातकाल में क्या-क्या हुआ था

जब संविधान-कानून तोड़ा-मरोड़ा गया, अधिकार छीने गए, जानें आपातकाल में क्या-क्या हुआ था

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आपातकाल इस देश में पिछले पांच दशकों से चर्चा और विवाद का विषय रहा है. 50 वर्ष पहले 25-26 जून, 1975 की दरम्यानी रात में देश के संसदीय लोकतंत्र पर 21 महीनों के आपातकाल का ग्रहण लगा था. मार्च, 1977 में आपातकाल की समाप्ति के बाद के तकरीबन 49 वर्षों की तरह इस साल भी आपातकाल के काले दिनों को बड़े पैमाने पर याद करने, आपातकाल के दौरान राजनीतिक विरोधियों की गिरफ्तारी, दमन और उत्पीड़न, मानवाधिकारों और नागरिक स्वतंत्रता पर हुए प्रहारों, प्रेस सेंसरशिप के नाम पर प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटे जाने, संविधान संशोधनों के जरिए न्यायपालिका को नियंत्रित करने के प्रयासों की भर्त्सना करने के साथ ही इस सबके लिए जिम्मेदार तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के ‘अधिनायकवादी रवैए’ को कोसने और कांग्रेस को भी लानत-मलामत भेजने की रस्म निभाने के साथ ही बढ़-चढ़ कर लोकतंत्र और संविधान की रक्षा की कसमें खाई जा रही हैं.

ऐसा करनेवालों में बहुत सारे वे ‘लोकतंत्र प्रहरी और सेनानी’ भी हैं, जिन पर आज सत्तारूढ़ हो कर अमृतकाल के नाम पर लोकतंत्र और संवैधानिक संस्थाओं के साथ परोक्ष रूप से कमोबेश वही सब करने के आरोप लग रहे हैं जिनके लिए हम सब इंदिरा गांधी, उनकी कांग्रेस और आपातकाल को कोसते रहते हैं.

लोकतंत्र के इतिहास में काला अध्याय

यकीनन, आपातकाल भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक काला और कलंकित अध्याय था. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने और उनकी पार्टी ने भी आपातकाल लागू करने और उस अवधि में हुई ज्यादतियों के लिए माफी मांग ली थी, उन 21 महीनों के दौरान लोकतंत्र पर हुए हमलों, दमन-उत्पीड़न, मानवाधिकारों और नागरिक स्वतंत्रता को कुचलने, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और असहमति के स्वरों को दबाने के प्रयासों को आज भी याद करने और खासतौर से उस पीढ़ी के लिए भी जानना बहुत जरूरी है जो उस समय पैदा भी नहीं हुई थी या फिर आपातकाल के मायने समझने के लायक नहीं थी. जब देश में आपातकाल लागू हुआ था, उस समय आज के भारत की आधी से अधिक आबादी का जन्म भी नहीं हुआ था. उस समय देश की आबादी तकरीबन 62 करोड़ थी जो इस समय बढ़कर तकरीबन 144 करोड़ हो गई है.

आज के भारत के हर दस में से 8-9 लोग तब इतने बड़े नहीं थे कि उस समय हो रहे राजनीतिक-प्रशासनिक घटनाक्रमों के परिणामों का सहज अंदाज़ा लगा पाते. जाहिर सी बात है कि इतने साल बीत जाने के बाद लोगों की चेतना पर आपातकाल के निशान धुंधला से गए हैं. इसलिए भी आज न सिर्फ आपातकाल को याद करना बल्कि उसके प्रति देशवासियों को चौकस करना भी जरूरी है ताकि दोबारा वैसे काले दिनों का सामना नहीं करना पड़े. भविष्य में कोई सत्तारूढ़ दल और उसका नेता वैसी हरकत और हिमाकत नहीं कर सके जैसा तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 25-26 जून 1975 की दरम्यानी रात में किया था.

आपातकाल में मीडिया ही नहीं, डर-सहम सी गई हमारी न्यायपालिका भी दबाव में आ गई थी.

न्यायपालिका के बंधे हाथ!

आपातकाल में सरकार ने अपने नागरिकों के जीने के अधिकार भी छीन लिए थे. उन 21 महीनों में मीडिया ही नहीं, डर-सहम सी गई हमारी न्यायपालिका भी दबाव में आ गई थी. संविधान संशोधनों के जरिए सर्वोच्च न्यायालय के हाथ बांध दिए गए थे. इसका बड़ा कारण सर्वोच्च अदालत में जजों की वरिष्ठता को दरकिनार कर की गई मुख्य न्यायाधीश अजित नाथ रे की नियुक्ति और किसी तरह के अदृश्य डर के साथ ही आपातकाल में हुए संविधान संशोधन भी थे. आपातकाल के दौरान कई सारे संशोधनों के जरिए संविधान को पूरी तरह से निजी महत्वाकांक्षाओं की भेंट चढ़ाने के प्रयास हुए.

संविधान और कानून को खूब तोड़ा-मरोड़ा गया. आपातकाल को समय की जरूरत बताते हुए इंदिरा गांधी की सरकार ने उस दौर में लगातार कई संविधान संशोधन किए जिनके चलते इसे अंग्रेजी में कांस्टीट्यूशन ऑफ इंडिया की जगह कांस्टीट्यूशन ऑफ इंदिरा भी कहा जाने लगा था. इन संविधान संशोधनों का मकसद गांधी की संसद सदस्यता और सत्ता को अक्षुण्ण और निर्विघ्न बनाए रखने के साथ ही नागरिक स्वतंत्रताओं, मौलिक अधिकारों, प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर ताले लगाकर असहमति और विरोध के स्वरों को दबाना भी था.

आपातकाल में सबसे पहला था भारतीय संविधान का 38वां संशोधन. 22 जुलाई, 1975 को पास हुए इस संशोधन के द्वारा न्यायपालिका से आपातकाल की न्यायिक समीक्षा करने का अधिकार छीन लिया गया. इसके लगभग दो महीने बाद 8 अगस्त, 1975 को संविधान का 39वां संशोधन लाया गया. यह संविधान संशोधन इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री पद को बनाए रखने के लिए किया गया था. इलाहाबाद उच्च न्यायालय इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर चुका था. लेकिन इस संशोधन ने न्यायपालिका से प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति और स्पीकर (लोकसभा अध्यक्ष) के पद पर निर्वाचित व्यक्ति के चुनाव से संबंधित विवाद की सुनवाई का अधिकार ही छीन लिया.

इस संशोधन के अनुसार प्रधानमंत्री के चुनाव की जांच सिर्फ संसद द्वारा गठित की गई समिति ही कर सकती थी. कुलदीप नैयर इमर्जेंसी की इनसाइड स्टोरी (पृष्ठ 105) में लिखते हैं कि 7 नवंबर, 1975 को सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधान पीठ ने एक राय से इंदिरा गांधी के मुकदमे में न केवल इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को पलट दिया, उन पर छह साल तक कोई चुनाव नहीं लड़ने की पाबंदी भी हटा ली. यह फैसला तथ्यों पर आधारित नहीं था बल्कि संसद से चुनाव कानून में संशोधन पर आधारित था. इस पीठ में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश अजित नाथ रे, जस्टिस हंस राज खन्ना, जस्टिस के के मैथ्यू, जस्टिस एम एच बेग और जस्टिस यशवंत विष्णु चंद्रचूड भी शामिल थे.

Supreme Court

सुप्रीम कोर्ट

नजरबंदी बढा़ई गई

आपातकाल लागू होने के पहले हफ्ते में ही संविधान के अनुच्छेद 14, 21 और 22 को निलंबित कर दिया गया. ऐसा करके सरकार ने कानून की नजर में सबकी बराबरी, जीवन और संपत्ति की सुरक्षा की गारंटी और गिरफ्तारी के 24 घंटे के अंदर अदालत के सामने पेश करने के अधिकारों को रोक दिया. राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (रासुका) तो पहले से ही लागू था. इसमें भी कई बार बदलाव किए गए. रासुका में 29 जून, 1975 के संशोधन से नजरबंदी के बाद बंदियों को इसका कारण जानने का अधिकार भी खत्म कर दिया गया. साथ ही नजरबंदी को एक साल से अधिक समय तक बढ़ाने का प्रावधान भी कर दिया गया. तीन हफ्ते बाद 16 जुलाई, 1975 को इसमें बदलाव करके नजर बंदियों को अदालत में अपील करने के अधिकार से भी वंचित कर दिया गया. 10 अक्टूबर, 1975 के संशोधन द्वारा नजरबंदी के कारणों की जानकारी कोर्ट या किसी को भी देने को अपराध बना दिया गया.

40वें और 41वें संशोधन के जरिए संविधान के कई प्रावधानों को बदलने के बाद 42वां संशोधन पास किया गया जो सबसे कठोर था. इसके जरिए संविधान के मूल ढांचे को कमजोर करने, उसकी संघीय विशेषताओं को नुकसान पहुंचाने और सरकार के तीनों अंगों के बीच के संतुलन को बिगाड़ने के प्रयास किए गये. इस संविधान संशोधन के जरिए कोशिश की गई कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति और लोकसभा अध्यक्ष पर जीवन भर किसी अपराध को लेकर कोई मुकदमा नहीं चलाया जा सकता. जनवरी, 1976 में अनुच्छेद 19 को भी निलंबित कर दिया गया. इससे अभिव्यक्ति, प्रकाशन करने, संघ (यूनियन) बनाने और सभा करने की आजादी भी छीन ली गई.

Indira Gandhi 12 June Verdict

पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी

42वें संविधान संशोधन के सबसे विवादित प्रावधानों में से एक था- मौलिक अधिकारों की तुलना में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों को वरीयता देना. इस प्रावधान के कारण किसी भी व्यक्ति को उसके मौलिक अधिकारों तक से वंचित किया जा सकता था. इस संशोधन के जरिए न्यायपालिका को पूरी तरह से बौना कर देने के साथ ही विधायिका को अपार शक्तियां दे दी गई थीं. अब केंद्र सरकार को यह शक्ति भी थी कि वह किसी भी राज्य में कानून-व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर कभी भी सैन्य या पुलिस बल भेज सकती थी. साथ ही राज्यों के कई अधिकारों को केंद्र के अधिकार क्षेत्र में डाल दिया गया. 42वें संशोधन का एक और कुख्यात प्रावधान संविधान में संशोधन के संबंध में भी था. हालांकि आपातकाल से कुछ साल पहले सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद भारती मामले में ऐतिहासिक फैसला देते हुए संविधान में संशोधन करने के पैमाने तय कर दिए थे. लेकिन 42वें संशोधन ने इन पैमानों को भी दरकिनार कर दिया. इस संशोधन के बाद विधायिका द्वारा किए गए संविधान-संशोधनों को किसी भी आधार पर न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती थी. साथ ही सांसदों एवं विधायकों की सदस्यता को भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती थी. किसी विवाद की स्थिति में उनकी सदस्यता पर फैसला लेने का अधिकार सिर्फ राष्ट्रपति को दे दिया गया और लोकसभा का कार्यकाल भी एक बार और एक साल के लिए बढ़ा दिया गया. इससे पहले 1976 की शुरुआत में भी लोकसभा का कार्यकाल पांच वर्ष से बढ़ाकर छह वर्ष कर दिया गया था. इसके विरोध में मध्य प्रदेश की जेलों में बंद समाजवादी नेता मधु लिमये और शरद यादव ने लोकसभा की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया था.

हालांकि आपातकाल के दौरान भारतीय संविधान में कुछ संशोधन ऐसे भी हुए जिन्हें सकारात्मक नजरिये से देखा जा सकता है. संविधान की प्रस्तावना में समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता जैसे शब्दों का जुड़ना और संविधान में मौलिक कर्तव्यों का शामिल होना कुछ ऐसे ही उदाहरण हैं. यही कारण है कि ये बदलाव आज भी हमारे संविधान का हिस्सा हैं. लेकिन इन चुनिंदा सकारात्मक प्रावधानों से कभी भी आपातकाल और उसकी आड़ में हुए काले संविधान संशोधनों की क्षतिपूर्ति नहीं की जा सकती थी.

जीने का अधिकार भी सरकार के पास!

आपातकाल में सबसे भयानक था संविधान के अनुच्छेद 21, 22 को रद्द कर देना. इसके जरिए लोगों की नागरिक आजादी खत्म कर दी गई थी. किसी को भी, कभी भी हिरासत में लिया जा सकता था. इससे जुड़े एक मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने आपातकाल में नागरिकों के मौलिक अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रताओं को रद्द करने को जायज ठहराते हुए नागरिकों के जीने के अधिकार भी छीन लिए जाने की ताईद की थी. याद रहे कि संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालयों को बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं की सुनवाई करने का अधिकार है.

आपातकाल की घोषणा के बाद देश भर में निरोधात्मक नजरबंदी-गिरफ्तारियों के दौर शुरू हो गए थे. कुछ गिरफ्तार लोगों ने उच्च न्यायालयों में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएं दायर कीं. उन याचिकाओं पर जबलपुर सहित देश के नौ उच्च न्यायालयों ने यह कहा कि आपातकाल के बावजूद नागरिकों का बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाएं दायर करने का अधिकार कायम रहेगा. केंद्र सरकार ने इन निर्णयों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर कर दी. तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश अजित नाथ रे, जस्टिस हंस राज खन्ना, मिर्जा हमीदुल्ला बेग, यशवंत विष्णु चंद्रचूड़ और जस्टिस प्रफुल्लचंद्र नटवरलाल भगवती की संविधान पीठ के समक्ष इस मामले की सुनवाई के दौरान तत्कालीन अटार्नी जनरल नीरेन डे ने कहा था कि यदि स्टेट आज किसी की जान भी ले ले तो भी उसके खिलाफ कोई व्यक्ति अदालत की शरण नहीं ले सकता क्योंकि ऐसे मामलों को सुनने के अदालतों के अधिकार को स्थगित कर दिया गया है. नीरेन डे ने आपातकाल में जो कुछ कहा, वैसा तो यहां अंग्रेजी राज में भी नहीं हुआ था. उस समय भी जनता को अदालत में जाने की सुविधा हासिल थी.

लेकिन सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने 28 अप्रैल, 1976 के अपने बहुमत के फैसले से नागरिकों के मौलिक अधिकारों को निलंबित करने के पक्ष में फैसला सुनाते हुए कहा था कि 27 जून, 1975 को राष्ट्रपति की ओर से जारी आदेश के अनुसार प्रतिबंधात्मक कानून मीसा के तहत हिरासत में लिया गया कोई व्यक्ति संविधान के अनुच्छेद-226 के अंतर्गत कोई याचिका दाखिल नहीं कर सकता. इस फैसले से असहमति जताते हुए जस्टिस हंस राज खन्ना ने कहा था कि सरकार मौलिक अधिकारों के हनन के खिलाफ सुनवाई करने के हाई कोर्ट के अधिकार को किसी भी स्थिति में छीन नहीं सकती. जस्टिस खन्ना के इस साहसिक कदम पर ननी ए (अर्देशिर) पालखीवाला ने उस समय अमेरिकी अखबार न्यूयार्क टाइम्स में अपने एक लेख में लिखा कि जस्टिस खन्ना की मूर्ति भारत के हर शहर में लगाई जानी चाहिए क्योंकि हर तरह के खतरों के बीच उन्होंने सच बोलने का साहस दिखाया. लेकिन इसके उलट जस्टिस खन्ना को अपनी ईमानदारी और साहसिक टिप्पणी का खामियाजा भुगतना पड़ा. उनकी वरिष्ठता को दरकिनार या अवक्रमित कर उनसे जूनियर जस्टिस एम एच (मिर्जा हमीदुल्ला) बेग को सुप्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया.

जस्टिस खन्ना ने इसके विरोधस्वरूप त्यागपत्र दे दिया था. बाद के दिनों में इस संविधान पीठ के एक अन्य सदस्य जस्टिस पी एन भगवती ने लेक्सी (पूर्ववर्ती माई लॉ) को दिए एक साक्षात्कार में कहा था, शिवकांत शुक्ल वाले केस के फैसले में मैं गलत था. वह मेरा कमजोर कृत्य था. उन्होंने यह भी कहा, पहले तो मैं उस तरह के फैसले के खिलाफ था, पर पता नहीं बाद में क्यों मैं भी कुछ सहयोगी न्यायाधीशों की बातों में आ गया.

सुप्रीम कोर्ट ने मानी गलती!

आपातकाल में नागरिकों के जीने तक का अधिकार छीन लेने के अपने फैसले के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 2011 में अपनी गलती मान ली थी. न्यायमूर्ति आफताब आलम और अशोक कुमार गांगुली की पीठ ने दो जनवरी, 2011 को उस समय की अदालती भूल को यह कहते हुए स्वीकार किया कि देश में आपातकाल के दौरान इस सर्वोच्च अदालत से भी नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन हुआ था. यही नहीं, 24 अगस्त, 2017 को सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड ने शीर्ष अदालत के उस फैसले को ही खारिज कर दिया जिसे आपातकाल के दौरान उनके पिता जस्टिस यशवंत विष्णु चंद्रचूड़ सहित पांच जजों की बेंच ने बहुमत के आधार पर सुनाया था.

दरअसल, आपातकाल के दौरान एडीएम जबलपुर मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने इस बात पर विचार किया था कि आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकार निलंबित रहते हैं अथवा नहीं. तब जस्टिस यशवंत विष्णु चंद्रचूड़ का कहना था, व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की कोई कसौटी नहीं है इसलिए जब ये अधिकार लागू होता है तो इस बात का पता लगाना असंभव है कि यह संविधान प्रदत्त है अथवा संविधान से पहले ही अस्तित्व में था.

लेकिन उनके पुत्र, निजता के अधिकार पर फैसला सुनाने वाली संविधान पीठ के सदस्य जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने कहा कि एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ल के मामले में उनके पिता समेत चार न्यायाधीशों के बहुमत पर आधारित फैसले में गंभीर त्रुटियां थीं. उन्होंने लिखा कि जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता मानवीय अस्तित्व के लिए अपरिहार्य हैं. केशवानंद भारती केस का हवाला देते हुए उन्होंने इसे मौलिक अधिकार करार दिया. इस फैसले में संविधान पीठ के अन्य सदस्य भी उनके साथ खड़े थे. यही नहीं चंद्रचूड ने आपातकाल के दौरान एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ल के मामले में असहमति का फैसला देनेवाले जस्टिस हंसराज खन्ना की सराहना करते हुए लिखा कि न्यायमूर्ति खन्ना के विचारों का आदर तथा उनके सोच की दृढ़ता और उनमें निहित साहस का सम्मान किया जाना चाहिए. न्यायमूर्ति चंद्रचूड का कहना था कि जीवन के अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को संविधान में शामिल कर लिए जाने का मतलब यह नहीं कि संविधान के बाहर इन अधिकारों का औचित्य नहीं रह जाता. यह नहीं कहा जा सकता कि संविधान को स्वीकार करके भारत के नागरिकों ने अपने मानवीय अस्मिता के सबसे अहम पहलुओं को, यानी जीवन, स्वतंत्रता और आजादी को राज्य को सौंप दिया है और यह सब कुछ अब राज्य की दया और करुणा पर निर्भर करेगा. हालांकि इन्हीं जस्टिस धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने मुख्य न्यायाधीश बनने के बाद 21 अक्टूबर, 2024 को पुणे जिले के खेड़ तालुका स्थित अपने कन्हेरसर गांव में एक सम्मान समारोह में कहा कि राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद का समाधान साक्ष्य-सबूतों और संवैधानिक प्रावधानों के आधार पर नहीं बल्कि नहीं बल्कि ईश्वर की कृपा से ही संभव हुआ. उन्होंने कहा, अक्सर ऐसे मामले आते हैं जिनका समाधान कठिन होता है. राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद भी ऐसा ही एक मामला था. मैं भगवान के सामने बैठा और उनसे प्रार्थना की कि वे इस विवाद का कोई समाधान खोजें. उन्होंने अपनी आस्था पर बल देते हुए कहा, यदि आप में आस्था है, तो भगवान हमेशा कोई रास्ता निकालेंगे.

1977 में केंद्र में पहली गैर कांग्रेसी, जनता पार्टी की सरकार ने कुछ नये संविधान संशोधनों के जरिए न सिर्फ आपातकाल को लागू करने के नियम-कायदों को बहुत कठोर बना दिया, मीडिया और न्यायपालिका के बंधे हाथों को भी खोल कर लोकतंत्र को वापस पटरी पर ला दिया था. इसके बावजूद अभी भी मीडिया और न्यायपालिका की स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता पर सवाल उठते रहते हैं.

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