होम नॉलेज मुगल बादशाह कैसे लड़ते थे जंग, कहां से मंगाते थे हथियार? बदल दिया था युद्ध लड़ने का तरीका

मुगल बादशाह कैसे लड़ते थे जंग, कहां से मंगाते थे हथियार? बदल दिया था युद्ध लड़ने का तरीका

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मुगलों के आने के बाद भारत में युद्धों में बारूद का इस्तेमाल होना शुरू हुआ.

रूस-यूक्रेन की लड़ाई और हाल ही में हुए इजराइल-ईरान युद्ध में तरह-तरह के हथियारों का इस्तेमाल देखने को मिला. युद्धों का इतिहास काफी पुराना है और भारत के राजा-महाराजा भी एक से बढ़ कर एक हथियारों का इस्तेमाल करते थे. गदा से लेकर तलवार, तीर, भाला और कृपाण जैसे भारी भरकम हथियारों को चलाने के लिए सैनिकों का शक्तिशाली होना भी जरूरी था. हालांकि, भारत में मुगल शासन की स्थापना के साथ ही युद्ध की रणनीति के साथ ही हथियारों तक में बदलाव आ गया.

आइए जान लेते हैं कि मुगलों के दौर में युद्ध कैसे लड़े जाते थे? कौन-कौन से हथियार इस्तेमाल होते थे और किन देशों से मंगाए जाते थे? किस मुगल बादशाह ने सेना को सबसे मजबूत बनाया और सबसे ज्यादा जंग जीती?

मुगलों ने बदला युद्ध का तरीका

इतिहासकारों का मानना है कि 15वीं शताब्दी तक भारत में लड़ाइयों का अपना ही एक परंपरागत तरीका था. सेनाओं में पैदल सिपाही, घोड़े और हाथी सवार लड़ाके होते थे. ये तीर, तलवार और भाले आदि का इस्तेमाल करते थे और दोनों ओर की सेनाएं आमने-सामने एक-दूसरे पर वार करती थीं. हालांकि, भारत पर मुगल आक्रमण के बाद युद्ध का तरीका काफी बदल गया.

एक तो सबसे खास बात यही कही जाती है कि मुगलों के आने के बाद भारत में युद्धों में बारूद का इस्तेमाल होना शुरू हुआ. इतिहासकारों का कहना है कि दिल्ली के सुल्तान इब्राहिम लोदी को सिंहासन से हटाने के लिए उसी के पंजाब के तत्कालीन गवर्नर इब्राहिम लोदी ने साजिश रची और अपने विद्रोह को पुख्ता करने के लिए बाबर को लोदी के खिलाफ युद्ध के लिए आमंत्रित किया था. 1526 ईस्वी में बाबर ने पानीपत के मैदान में इब्राहिम लोदी की सेना को हरा दिया. इसमें बाबर की सेना ने तोप और बारूद का इस्तेमाल किया. इसके साथ ही भारत में लड़ाई के तरीके में एक नई क्रांति देखने को मिली. युद्धों के लिए बारूद का इस्तेमाल जरूरी समझा जाने लगा.

Babur

बाबर ने हिन्दुस्तान में मुगल साम्राज्य की नींव रखी थीं.

युद्ध की मिलिटरी स्टाइल का इस्तेमाल

साल 1526 में मुगल सल्तनत की स्थापना के बाद से साल 1857 ईस्वी में अंग्रेजों के शासन की स्थापना होने तक तीन सौ सालों से ज्यादा के समय में युद्ध के तरीकों में काफी बदलाव आया. सेना के स्वरूप और क्रियाकलापों में भी तमाम बदलाव किए गए. युद्ध की मिलिटरी स्टाइल का इस्तेमाल किया जाने लगा, जिसमें आर्टिलरी और बंदूकों का इस्तेमाल बढ़ गया. हालांकि, इसका मतलब यह कतई नहीं है कि पुराने हथियारों जैसे तलवार और भाले का इस्तेमाल खत्म हो गया, बल्कि इन हथियारों के साथ ही युद्धों में आर्टिलरी यानी तोपखाने का भी इस्तेमाल होने लगा. नए हथियारों ने युद्ध में अलग-अलग इकाइयों पैदल सेना और तापखाने की पोजीशन के इस्तेमाल में बदलाव किया.

तोपखाने का चलन और भारी तोपें खींचने के लिए हाथी

वैसे कई इतिहासकार इस बात का भी दावा करते हैं कि तोपखाने का इस्तेमाल पहली बार मुगलों के आने के बाद ही हुआ पर बहुत से इतिहासकार इससे इत्तेफाक नहीं रखते. इक्तिदार आलम खान गनपाउडर एंड फायरआर्म्स में इस बात के कई सबूत देते हैं कि भारतीयों को बंदूक तकनीक का इस्तेमाल पहले से पता था. हालांकि, बारूद का इस्तेमाल केवल भारी तोपखाने तक ही सीमित था. 15वीं सदी के उत्तरार्ध में ही भारत में प्राथमिक तौर पर भारी तोपों का इस्तेमाल होता था. हालांकि, यह सही है कि मुगलों के समय में बारूद का इस्तेमाल सही ढंग से होने लगा. मुगलों ने हल्की और मध्यम तोपों का भी इस्तेमाल किया. हल्की तोपों को 4-5 लोग खींच सकते थे, जबकि भारी तोपें खींचने के लिए हाथियों का इस्तेमाल होता था.

हल्की होने के कारण मुगलों की तोपें कहीं भी ले जाई जा सकती थीं और खुले युद्ध में इनका इस्तेमाल हो सकता था. वहीं, भारतीय तोपों काफी भारी होती थीं और कांसे की बनी होती थीं. ऐसे में इन्हें कहीं ले जाना मुश्किल होता था और एक बार इस्तेमाल होने के बाद इन्हें ठंडा होने में समय लगता था. इसके बाद ही दोबारा इनका प्रयोग संभव होता था. इसके अलावा मुगलों के समय में हैंडगन (हाथ की बंदूकों) का इस्तेमाल होने लगा, जिन्हें तुफंगस (Tufangas) कहा जाता था. इनसे आसानी से निशाना साधा जा सकता था.

Mughal War History

मुगलों के दौर में तोपों को खींचने के लिए हाथियों का इस्तेमाल किया जाता था. फोटो: META

सेना की देखरेख पर खर्च

मुगलों के शासनकाल में हर सूबे में एक कैंटोमेंट बनाया गया, जहां मनसबदार नियुक्त किए गए. इन्हीं मनसबदारों की देखरेख में कैंटोमेंट में सेना की टुकड़ियां रहती थीं. मनसबदार ही इन टुकड़ियों को वेतन और घोड़े मुहैया कराता था. सैनिकों को अपने दुश्मन को शारीरिक रूप से अक्षम करने या नेस्तनाबूद करने की ट्रेनिंग दी जाती थी. सैनिकों को नियमित तौर पर शमशीर जानी (तलवारबाजी) और तीरंदाजी का अभ्यास करना होता था. इसके अलावा मुगल अपनी सेना में अच्छी नस्ल के घोड़े रखने की हर संभव कोशिश करते थे. इसके लिए अरब, ईरान, तुरान, तुर्की, तुर्केस्तान, शीरवान, तिब्बत, कश्मीर से लेकर अन्य दूसरे देशों तक से घोड़े मंगाए जाते थे.

रणनीति का इस्तेमाल

युद्ध नीति में इतने सारे बदलावों के साथ ही मुगल एक और रणनीति का इस्तेमाल करते थे. तकनीक, जानवर, पैदल सेना और तोपखाने के अलावा ज्यादातर मुगल शासक गैर लड़ाकू रणनीति का प्रयोग करते थे. मुगलों द्वारा लड़े गए ज्यादातर युद्ध वास्तव में सीज वार का उदाहरण हैं, जिनमें दुश्मन के किले पर चढ़ाई कर बाहर से उसका संपर्क तोड़ दिया जाता था. ऐसे में यह तो पता नहीं होता था कि किले में कितने लोग और सैनिक हैं और उनके पास खाने-पीने का कितना सामान है पर एक निश्चित समय के बाद किले के भीतर रसद घटने लगती थी या फिर खत्म होती थी. चित्तौड़ (1567-68), रंणथंभौर (1569) और कालिंजर (1569) की लड़ाई इसी तरह की लड़ाई का उदाहरण हैं, जिसमें मुगलों ने अपने दुश्मन राजपूतों की सेनाओं का आवागमन सीमित कर उनकी रसद खत्म करा दी थी.

Aurangzeb

मुगल बादशाह औरंगजेब ने अपने शासनकाल के 27 साल युद्ध में ही बिता दिए थे.

युद्ध से पहले की तैयारी

मुगलों खासकर अकबर के समय में कम से कम 5000 लोग सेना के आगे चलते थे जो युद्ध के मैदानों में शिविर लगाते थे. ये प्रोफेशनल शिविर बनाने वाले होते थे. इनमें तमाम बढ़ई, टैंकर के साथ ही शिविर की रक्षा के लिए सैनिक भी होते थे. इन हजारों लोगों को गैर लड़ाकू माना जाता था, जो युद्ध का हिस्सा तो नहीं होते थे पर युद्ध में जिनकी अहम भूमिका होती थी. मुगल केवल युद्ध नहीं लड़ते थे बल्कि, रणनीतिक तरीके से नए लोगों के साथ संबंध बनाकर उनका दिल भी जीत लेते थे. अपने फायदे के लिए मुगल लोगों के रहने-खाने का इंतजाम करते थे और उनकी अन्य जरूरतों को पूरा करते थे.

अकबर और औरंगजेब के समय में मजबूत हुई मुगल सेना

मुगलों के शासनकाल में हथियारों के उत्पादन का सबसे बड़ा केंद्र दिल्ली और लाहौर थे. यहीं पर तलवार, घुमावदार शमशीर, खंजर, गदा से लेकर अन्य सभी छोटे-बड़े हथियारों का निर्माण होता था. मुगल शासक अकबर ने सबसे लंबे समय तक शासन किया और उसके शासनकाल से लेकर औरंगजेब के शासनकाल तक मुगल सेना का काफी विकास हुआ और इन्हीं दोनों के समय में सेना सबसे ज्यादा मजबूत रही. अकबर के शासनकाल में युद्धों और कूटनीतिक संबंधों के जरिए मुगल साम्राज्य का सबसे ज्यादा विस्तार हुआ. वहीं, औरंगजेब ने तो अपने शासनकाल के 27 साल युद्ध में ही बिता दिए और दिल्ली से दूर लड़ाइयों में ही व्यस्त रहा. इस दौरान उसने सबसे ज्यादा लड़ाइयां जीतीं पर मराठों को पूरी तरह से शिकस्त देने में नाकाम रहा.

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