पचास साल पहले 25 जून की रात को जब पूरा देश सो रहा था, तब भारत को आपातकाल ने अपने बाहुपाश में जकड़ लिया जिसमें लोकतंत्र और बुनियादी अधिकार हाशिये पर चले गए.भारत के लोकतंत्र और राजनीति के लिए यह घोर निराशा का समय था.12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को चुनाव में भ्रष्ट आचरण का दोषी करार दिया था.उनके प्रतिद्वंद्वी राज नारायण ने चुनाव में हारने के बाद यह मुकदमा दायर किया था और कई सालों की सुनवाई के बाद आखिकार फैसला नारायण के हक में आया.इलाहाबाद हाईकोर्ट ने फैसले के बाद इसके अमल पर 20 दिन की रोक लगा दी थी जिससे कि पार्टी प्रधानमंत्री पद पर किसी और को नियुक्त कर सके.तमाम विपक्षी दल और कांग्रेस पार्टी के कुछ नेता भी चाहते थे कि इंदिरा गांधी इस्तीफा दे दें लेकिन उन्होंने पद छोड़ने से मना कर दिया और देश में इमरजेंसी लगा दी.भारत की राजनीतिमें भारी उठापटक हुई.”विनाश काले विपरीत बुद्धि”25 जून की रात राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली के पास इमरजेंसी का प्रस्ताव गया.आमतौर पर इस तरह के प्रस्ताव कैबिनेट की ओर से भेजे जाते हैं लेकिन कैबिनेट में शामिल एक-दो लोगों को छोड़ किसी को इसकी भनक तक नहीं थी.हां सत्तापक्ष के नेताओं को यह जरूर महसूस हो रहा था कि कुछ बड़ा होने वाला है.आधी रात को राष्ट्रपति ने इस प्रस्ताव पर दस्तखत कर दिए और देश में इमरजेंसी लग गई.इसके साथ ही गिरफ्तारियां शुरू हो गईं.25 जून को ही दिल्ली के रामलीला मैदान में विपक्षी दलों ने एक बड़ी रैली की थी.रैली में बड़ी संख्या में लोग पहुंचे और इंदिरा गांधी के इस्तीफे के लिए नारा बुलंद हुआ.इससे कुछ दिन पहले इंदिरा गांधी ने दिल्ली के बोट क्लब पर एक रैली की थी और उसमें भी बड़ी संख्या में लोग जमा हुए थे.वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयार ने अपनी किताब “द इनसाइड स्टोरी ऑफ इमरजेंसी” में लिखा है, “विपक्षियों की रैली इंदिरा गांधी की रैली से बड़ी तो नहीं थी लेकिन फर्क यह था कि उस रैली के लिए सरकारी तंत्र ने सारे इंतजाम किए थे.बसों और ट्रकों में भर कर पड़ोसी राज्यों से लोगों को लाया गया था”जाने-माने वकील प्रशांत भूषण अपनी किताब “द केस दैट शुक इंडिया” में लिखते हैं, “रैली को संबोधित करने और दिन भर की राजनीतिक गहमागहमी के बाद दिग्गज गांधीवादी और समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण गांधी पीस फाउंडेशन में सो रहे थे.आधी रात को पुलिस वहां आई और उन्हें गिरफ्तार कर लिया.जेल में ले जाए जाने से पहले जयप्रकाश नारायण ने पुलिस से सिर्फ इतना कहा, “विनाश काले विपरीत बुद्धि”भारत में समाजवादी आंदोलन की नींव रखने वाले जयप्रकाश नारायण तब “लोकनायक” बन चुके थे.विरोधियों पर शिकंजादिल्ली सड़कों पर पुलिस और सुरक्षा बलों की सैकड़ों गाड़ियां दौड़ रही थीं और हर उस शख्स को गिरफ्तार किया जा रहा था जो इंदिरा गांधी के खिलाफ बोल सकता था.ना सिर्फ दिल्ली में बल्कि भोपाल और बेंगलुरू समेत देश के कई और शहरों में विपक्षी नेताओं की गिरफ्तारियां हुईं.कुलदीप नैयर “इनसाइड स्टोरी ऑफ इमरजेंसी” में लिखा है, “इमरजेंसी लगाने की तैयारी पहले से ही चल रही थी.कांग्रेस शासित राज्यों में पहले ही उन लोगों के नाम की सूची भेजी जा चुकी थी जिन्हें गिरफ्तार किया जाना था” इसी किताब में उन्होंने आगे लिखा है, “यह तख्तापलट रक्तहीन था.पूरे भारत में लोगों को धड़ल्ले से गिरफ्तार किया जा रहा था.गिरफ्तारी वारंट में बस इतना ही लिखा जाता कि फलां-फलां को सार्वजनिक हित में गिरफ्तार किया जा रहा है.उन्हें ना तो किसी कानून के तहत किए गए अपराध का आरोपी बताया जाता ना कोर्ट में पेशी की जाती.अधाकंश राज्यों में एक आदर्श प्राथमिकी, वह दस्तावेज जिसके आधार पर गिरफ्तारी की जाती थी, को साइक्लोस्टाइल कर जिले के पुलिस थानों को भेज दिया जाता, ताकि जहां जरूरत पड़े उन्हें भर लिया जाए” मोरारजी देसाई, चरन सिंह, राज नारायण, पीलू मोदी और अशोक मेहता जैसे नेता दिल्ली में गिरफ्तार हुए तो अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मधु दंडवते बेंगलुरू से.इसी तरह कई दूसरे शहरों से भी नेताओं की गिरफ्तारियां हुईं.इन सब लोगों पर मेंटेनेंस ऑफ इसेंशियल सर्विसेज एक्ट (मीसा) लगाया गया था.बिहार के पूर्व मुख्य मंत्री लालू प्रसाद भी इमरजेंसी में गिरफ्तार हुए थे. जेल में रहने के दौरान जब उन्हें अपनी बेटी के जन्म की खबर मिली तो उन्होंने उसका नाम मीसा रख दिया.आम लोगों को खबर और उन पर असरइंदिरा गांधी ने 26 जून की सुबह कैबिनेट की बैठक बुलाई.सुबह की बैठक के लिए कैबिनेट के नेता आनन-फानन में प्रधानमंत्री निवास पहुंचे.उन्हें उम्मीद थी कि शायद प्रधानमंत्री इस्तीफे का एलान करेंगी.हालांकि बैठक में उन्हें बताया गया कि इमरजेंसी लगा दी गई है.बैठक बहुत जल्द खत्म हो गई.इसके बाद सुबह आठ बजे रेडियो पर इंदिरा गांधी ने इसका एलान किया.तब लोगों को पता चला कि देश में इमरजेंसी लगी है.वरिष्ठ पत्रकार जयशंकर गुप्त इमरजेंसी के दौरान आजमगढ़ के पास अपने गांव में गिरफ्तार हुए थे.वह समाजवादी युवजन सभा के कार्यकर्ता थे.उन्होंने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा, “मेरा मामला अनोखा था क्योंकि मैं और मेरे पिता, दोनों को गिरफ्तारी के बाद आजमगढ़ जेल के एक ही बैरक में रखा गया था.मेरे पिताजी उत्तर प्रदेश सोशलिस्ट पार्टी के नेता थे और उससे पहले स्वतंत्रता सेनानी रहे थे.पहले मैं गिरफ्तार हुआ उसके कुछ महीनों बाद पिताजी क्योंकि वह छिपे हुए थे”समाजवादी नेता जॉर्ज फर्नांडिस उन दिनों प्रतिपक्ष नाम से एक अखबार निकालते थे.उसी अखबार की प्रति लोगों तक पहुंचाने के दौरान जयशंकर गुप्त की खुफिया सेवा के अधिकारियों ने निशानदेही की और उसके तुरंत बाद उन्हें गिरफ्तार किया गया.तब वह इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में ग्रेजुएशन के छात्र थे.गुप्त बताते हैं, “मुझ पर डकैती का आरोप लगा, जब महीनों बाद जज के सामने मेरी पेशी हुई तो मैंने कहा का यह अनोखा मामला है, जब बिना किसी हथियार के अखबार लेकर कोई लूटमार करने गया था”चलती रही आम जिंदगीअखबारों को पहले ही रोका जा चुका था तो ऐसे में लोगों के पास खबर पाने का कोई जरिया नहीं था.देश में क्या हो रहा है, इसकी उन्हें कोई जानकारी नहीं थी.हालांकि जयशंकर गुप्त बताते हैं कि आम लोगों के लिए चीजें ज्यादा नहीं बदली थीं.वह कहते हैं, “आम लोग सामान्य जीवन जी रहे थे, जो लोग जेल में थे उनकी बात अलग थी.शुरू-शुरू में तो कई सकारात्मक चीजें हुईं, सरकारी दफ्तरों में अधिकारी समय पर आने लगे, रेलगाड़ियों का लेट होना बंद हो गया लेकिन कुछ महीने बीतने के बाद यह सब चीजें पीछे छूट गईं और इमरजेंसी का असली रूप सामने आने लगा”गुप्त कहते हैं कि इमरजेंसी लगाने से पहले इंदिरा गांधी के मन में यह डर बैठ गया था कि विपक्षी पार्टियां उनके खिलाफ साजिश कर देश को अस्थिर कर रही हैं.उन्हें बड़े पैमाने पर लोगों के सड़कों पर उतर कर आंदोलन का डर भी था.दूसरी तरफ विपक्षी दलों को लगा था कि देश भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलित होगा.यहां तक कि जब नेताओं की गिरफ्तारी हो रही थी, तब उन्हें यही उम्मीद थी कि लोग इसके खिलाफ विद्रोह कर देंगे.राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का विशाल संगठन इसमें बड़ी भूमिका निभाएगा.हालांकि जमीन पर ऐसा कुछ होता नहीं दिखा.लोग अपनी दाल रोटी की चिंता में ही जुटे रहे.इमरजेंसी के दौरान बाद में सरकार के चलाए नसबंदी कार्यक्रम ने जरूर लोगों को आतंकित किया.परिवार नियोजन के नाम पर तब जबरन नसबंदी की जा रही थी.यह इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संजय गांधी ने शुरू करवाया था. इमरजेंसी के भीतर इमरजेंसी1971 में मीसा (मेंटेंनेंस ऑफ इंटरनल सिक्योरिटी) कानून तस्करों और फॉरेन एक्सचेंज के गिरोहों पर कार्रवाई के लिए बना था.इसके तहत राज्य की सुरक्षा के लिए खतरा समझे जाने की स्थिति में सरकार को थोड़े समय के लिए मुकदमा चलाए बिना किसी संदिग्ध को गिरफ्तार करने का अधिकार मिल गया था.इमरजेंसी के दौर में बड़ी संख्या में लोगों को इसी कानून के तहत गिरफ्तार किया गया.पाकिस्तान के साथ 1971 की जिस लड़ाई के बाद बांग्लादेश आजाद हुआ उसके लिए देश में आपातकाल पहले ही लगाया जा चुका था और वह हटा नहीं था.इसी बीच 1975 में फिर आपातकाल लगा.वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर ने अपनी किताब “इनसाइड स्टोरी ऑफ इमरजेंसी” में जिक्र किया है कि कांग्रेस नेता स्वर्ण सिंह ने इंदिरा गांधी से पूछा कि आपातकाल तो पहले से ही है फिर क्यों? इस पर इंदिरा गांधी ने समझाया, वह बाहरी खतरों से देश की सुरक्षा के लिए है और यह इमरजेंसी देश के आंतरिक खतरों से निपटने के लिए है.इमरजेंसी के दौरान राष्ट्रपति के आदेश पर बुनियादी अधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ लोगों के कोर्ट जाने पर रोक लगा दी गई.इस आदेश के बाद संविधान के अनुच्छेद 14, 19, 21 और 22 के तहत मिले बुनियादी अधिकार एक तरह से स्थगित कर दिए गए.भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता का अधिकार, 19 के तहत अभिव्यक्ति, देश के भीतर कहीं भी आने जाने और रोजगार, कारोबार जैसे बुनियादी अधिकार हैं.इनके अलावा अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और आजादी का अधिकार जबकि अनुच्छेद 22 के तहत हिरासत में लिए जाने पर उसका आधार बताने का अधिकार मिलता है.इमरजेंसी में इन अधिकारों पर दावा नहीं किया जा सकता था.मीडिया और प्रेस पर सेंसर25 जून की रात दिल्ली के बहादुर शाह जफर मार्ग की बिजली काट दी गई.वहां कई अखबारों के दफ्तर थे.मकसद था अखबार को छपने से रोकना.स्टेट्समैन और हिंदुस्तान टाइम्स का दफ्तर कहीं और था तो उनके अखबार निकल गए.हालांकि उन्हें बांटे जाने से रोका गया.सभी न्यूज एजेंसियों और अखबारों को कहा गया कि जो कुछ भी वह छापेंगे, उसे पहले सेंसर को दिखाना होगा.सेंसर की मंजूरी मिलने के बाद ही कोई चीज छापी या प्रसारित की जा सकती थी.अगले दिन दिल्ली के इंडियन एक्सप्रेस और हिंदुस्तान टाइम्स ने विरोध जताने के लिए संपादकीय पन्ने को काला कर दिया.टाइम्स ऑफ इंडिया के मुंबई संस्करण ने ओबिच्युअरी वाले कॉलम में सेंसर से बचने के लिए एक नोटिस छापा, जिसमें लिखा था, “Died, D.E.M OCRACY, Mother of Freedom and Daughter of L I Berty, On 26 June, 1975″अंतरराष्ट्रीय प्रेस पर सेंसर नहीं था और इसमें इमरजेंसी के खिलाफ खूब लिखा गया.हालांकि बहुत जल्दी ही अंतरराष्ट्रीय संवाददाताओं को देश से बाहर जाने का हुक्म सुना दिया गया.ब्रिटेन और जो देश भारत में लोकतंत्र की बहुत संभावना नहीं देखते थे, उन्हें अपनी बात सच होती दिखने लगी थी.इंदिरा गांधी के खिलाफ क्या मामला था1971 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी ने इलाहाबाद से चुनाव लड़ा था.उनके खिलाफ मैदान में राज नारायण ने पर्चा भरा और उन्हें लगभग सभी प्रमुख विपक्षी पार्टियों ने अपना समर्थन दिया.”गरीबी हटाओ” के नारे के साथ चुनाव में उतरीं इंदिरा गांधी ने ना सिर्फ इलाहाबाद की सीट बल्कि अपनी पार्टी के लिए भी भरपूर समर्थन भी हासिल कर लिया.राज नारायण एक लाख से ज्यादा वोटों से चुनाव हार गए.इतनी बड़ी हार की उन्हें उम्मीद नहीं थी. उन्होंने आरोप लगाया कि सरकारी मशीनरी का गलत इस्तेमाल हुआ है और भ्रष्टाचार का सहारा लेकर उन्हें हराया गया.नतीजे आने के बाद उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में अपील दायर की.राज नारायण के वकील थे शांति भूषण.इंदिरा गांधी के खिलाफ लगे आरोपों में, चुनाव के लिए सरकारी अधिकारी का उपयोग, चुनावी यात्रा में एयरफोर्स के विमान का उपयोग, उनकी सभाओं के लिए मंच और बैरिकेडिंग बनाने के लिए सरकारी पैसे का खर्च, तय सीमा से अधिक धन का उपयोग और जाली मतपत्रों के इस्तेमाल समेत कई आरोप उन पर लगाए गए थे.इस मामले में उनकी हाईकोर्ट में पेशी भी हुई.भारत को हिलाने वाला फैसलालगभग 3 साल की सुनवाई के दौरान कई जज भी बदले.आखिर में जगमोहन सिन्हा की एकल पीठ ने इंदिरा गांधी को दो मामलों में चुनावी भ्रष्टाचार का दोषी पाया.इनमें से एक था इंदिरा गांधी के सेक्रेटरी यशपाल कपूर के रूप में एक सरकारी अधिकारी का चुनाव कार्यों के लिए इस्तेमाल और दूसरा चुनावी सभाओं में मंच और लाउड स्पीकर के लिए सरकारी धन का उपयोग.यशपाल कपूर ने चुनाव कार्य में लगने के लिए इस्तीफा दे दिया था लेकिन अदालत ने माना कि इस्तीफा मंजूर होने के पहले से ही वह चुनाव कार्य में लग चुके थे.प्रशांत भूषण ने अपनी किताब में ब्यौरा दिया है कि सुनवाई पूरी होने के बाद और फैसला सुनाए जाने के दौरान सरकारी मशीनरी का उपयोग कर जज पर काफी दबाव बनाने की कोशिश की गई.उन्हें हर तरीके से प्रभावित करने के प्रयास हुए लेकिन वह अपने रुख से नहीं डिगे और 12 जून को ऐतिहासिक फैसला सुना दिया.इलाबाद हाइकोर्ट ने अपने फैसले पर 20 दिन के लिए स्टे दिया था.बाद में सुप्रीम कोर्ट में जब इस फैसले पर स्थाई रोक लगाने के लिए सुनवाई हुई तो कोर्ट ने सशर्त रोक लगाने का फैसला सुनाया और इंदिरा गांधी से संसद में वोट देने का अधिकार छीन लिया.किन हालातों में लगी इमरजेंसीअदालत ने इंदिरा गांधी को चुनाव में भ्रष्ट आचरण का दोषी माना था और उनकी सदस्यता खत्म होने के साथ ही छह साल के लिए चुनाव लड़ने पर भी रोक लग गई थी.उस वक्त इंदिरा गांधी के वकीलों ने अदालत से यही कह कर फैसले पर स्टे लिया कि इस बीच पार्टी उनकी जगह लेने के लिए किसी और को नेता चुन लेगी.फैसला आने के बाद एक तरफ विपक्षी दलों के उन पर हमले तेज हो गए तो दूसरी तरफ उनकी ही पार्टी के कुछ नेता भी इस मौके का इस्तेमाल कर अपने लिए संभावनाएं तलाशने में जुट गए.इंदिरा गांधी ने एक बार स्वर्ण सिंह को अपनी जगह प्रधानमंत्री बनाने पर विचार किया लेकिन उनके करीबी नेताओं ने उन्हें समझाया कि जिसे वह कुर्सी सौंपेगी वह बाद में उसे छोड़ेगा नहीं.जयशंकर गुप्त बताते हैं कि स्वर्ण सिंह का नाम जब वैकल्पिक प्रधानमंत्री के लिए उभरा तो जगजीवन राम जैसे नेताओं ने अपनी दावेदारी पेश कर दी.गुप्त ने यह भी कहा, “उस समय बैंकों का राष्ट्रीयकरण, 1971 की लड़ाई में जीत, प्रीवी पर्स को खत्म करने और गरीबी हटाओ के नारे के दम पर इंदिरा गांधी ने अपार लोकप्रियता हासिल की थी.हालांकि इसके तुरंत बाद ही बिहार में छात्रों का आंदोलन, गुजरात में आंदोलन और इस तरह की कई घटनाओं के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले ने उनमें असुरक्षा भर दी”इन हालात में इंदिरा गांधी को बहुत कम लोगों पर भरोसा रह गया था.हालांकि पार्टी मोटे तौर पर उनके पक्ष में लामबंद रही और ज्यादातर नेता उन्हें ही अपना नेता मानते रहे.जिन लोगों पर इंदिरा गांधी को भरोसा था उनमें सबसे प्रमुख थे उनके छोटे बेटे संजय गांधी.संजय गांधी का आकांक्षाएं बड़ी थीं और वह उन्हें पूरा करने के लिए सत्ता का उपयोग करने से जरा भी नहीं हिचकते थे.उस दौर को देखने वाले मानते हैं कि वास्तव में इंदिरा गांधी के नाम पर इमरजेंसी में शासन संजय गांधी और उनके मित्र आरके धवन ने चलाया जो इंदिरा गांधी के निजी सचिव थे.संजय गांधी का कमरा सत्ता का असली केंद्र था और ज्यादातर फैसले ना सिर्फ वहीं लिए जाते थे बल्कि उन पर अमल कैसे होगा यह भी वहीं तय होता था.बहरहाल 19 महीने तक रहने के बाद इमरजेंसी आखिरकार खत्म हुई.जिन लोगों ने इसे लगाया था उन्होंने ही इसे हटाया भी मगर भारत के लोकतंत्र में एक काला अध्याय जुड़ गया.इसके बाद देश में आम चुनाव हुए.इन चुनावों में इंदिरा गांधी और कांग्रेस पार्टी की करारी हार हुई और देश में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनी.
Emergency in India A Dark Chapter in Democracy – June 25 1975 पचास साल पहले की इमरजेंसी जब सारा भारत जेल बन गया, India News in Hindi
0
पिछली पोस्ट