भारत में आपातकाल लगने पर लंदन के द टाइम्स ने हेडलाइन लिखी थी, द इंडियन डिक्टेटर (भारतीय तानाशाह).
भारत में आपातकाल के 50 साल पूरे हो गए हैं. 25 जून, 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सलाह पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने देश में आपातकाल की घोषणा की थी. लगभग 21 महीने तक चले आपातकाल के दौरान केंद्र सरकार ने कई कानूनों में बदलाव किए. कुछ नए अध्यादेश जारी किए. विपक्ष के नेता जेल में डाले गए. इन सारे हालात को लेकर तमाम तरह की आलोचनाओं होती रहती हैं पर आखिर दूसरे देश आपातकाल को किस नजर से देखते थे? अमेरिका और सोवियत संघ से लेकर ब्रिटेन तक दुनिया के देशों की नजर में आपातकाल कैसा था, आइए जानने की कोशिश करते हैं.
भारत में आपातकाल और जनवरी 1977 में चुनाव की घोषणा के बीच कई तरह के बदलाव देखने को मिले. हालांकि, इस दौरान भारत सरकार के साथ संबंध रखने वाली दूसरे देशों की सरकारों की भूराजनीतिक मान्यताएं स्थिर ही रहीं.
विदेशी मीडिया ने क्या-क्या लिखा?
विदेशी समाचार पत्रों ने इस दौरान भारत के बारे में अच्छी बातें नहीं लिखीं. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, लंदन के द टाइम्स ने हेडलाइन लिखी थी, द इंडियन डिक्टेटर (भारतीय तानाशाह). आपातकाल की खबर की द न्यूयॉर्क टाइम्स की हेडलाइन थी, इंडियाज आइरन कर्टन (भारत का लौह पर्दा) तो द गार्जियन ने हेडलाइन लगाई थी, इंडियाज प्युरिटन नैनी (भारत की नैतिकतावादी आया).
इन सबके पीछे असल वजह थी वाशिंगटन डीसी और लंदन में भारतीय राजदूतों टीएन कौल और बीके नेहरू की मौजूदगी. कौल ने तो पूरे अमेरिका का दौरा कर विश्वविद्यालयों के छात्रों, राज्यों के गवर्नर और सीनेटर को आपातकाल की सही स्थिति से अवगत कराने का बीड़ा उठा रखा था. हालांकि, रिपोर्ट्स में यह भी कहा गया है कि बंद दरवाजे के पीछे वह तर्क देते थे कि विकासशील देशों में केवल लोकतंत्र पर्याप्त नहीं है.
वहीं, लंदन में बीके नेहरू बीबीसी और दूसरे अन्य पब्लिशिंग हाउस की ओर से प्रकाशित समाचारों के खिलाफ नोट्स लिखते रहते थे. तत्कालीन विदेश मंत्री वाईबी चह्वाण को उन्होंने बताया था कि प्रेस में खराब खबरों और नकारात्मक टिप्पिणियों के बावजूद ब्रिटिश सरकार का रवैया औपचारिक ही थी.

आपातकाल में मीडिया.
सोवियत संघ की नजर में जरूरी था आपातकाल
जहां तक तत्कालीन सोवियत संघ की बात है, उसके पोलित ब्यूरो के ज्यादातर सदस्यों का मानना था कि आपातकाल जरूरी था. उनका तर्क था कि भारत में इंदिरा गांधी की सरकार को दक्षिण पंथी विपक्ष और प्रतिक्रियावादी बल खोखला करने के इच्छुक थे. नई दिल्ली में मौजूद तत्कालीन ब्रिटिश अफसरों का मानना था कि सोवियत संघ का रुख पूरी तरह से इंदिरा गांधी के पक्ष में था. आपातकाल के ठीक एक महीने बाद वहां प्रकाशित एक संपादकीय में दावा किया गया था कि आपातकाल को आम लोगों का पूरा समर्थन हासिल है.
ऐसी थी ब्रिटेन की आंतरिक नीति
लंदन में तत्कालीन प्रधानमंत्री हैरल्ड विल्सन और उनके पूरे मंत्रिमंडल का रवैया भी इंदिरा गांधी की सरकार के पक्ष में था. उनका मानना था कि भारत सरकार के सभी विभागों के साथ उनका संबंध पहले की ही तरह बना रहेगा. वास्तव में यह तत्कालीन ब्रिटिश सरकार की आधिकारिक आंतरिक नीति थी. ब्रिटिश विदेश विभाग भारत के हालात पर अपने नियमित नोट में इस बात का जिक्र करना नहीं भूलता था कि देश (भारत) अपनी राह पर अटल है.
इसी नोट में तत्कालीन अफसर यह भी लिखना नहीं भूलते थे कि भारत महत्वपूर्ण है और यह भविष्य में बड़ा खिलाड़ी होगा. उनका मानना था कि भारत की क्षमता को हमें अपनी दृष्टि से ओझल नहीं होने देना चाहिए.
यह वही दौर था, जब ब्रिटेन को तेल से मिले झटके ने उसे घुटनों पर ला दिया था. अमेरिका और चीन में छिड़ी हुई थी. इसी बीच सोवियत संघ की खुफिया इकाई केजीबी ने भारत और एशिया के ज्यादातर हिस्सों में पश्चिमी देशों की छवि धूमिल करने के प्रयास शुरू कर दिए थे.

पूर्व पीएम इंदिरा गांधी
अमेरिका का दोहरा रवैया
जहां तक अमेरिका की बात है तो कहानी थोड़ी जटिल थी. आपातकाल के शुरुआती कुछ महीनों में तत्कालीन अमेरिकी सरकार भारत में कांग्रेस सरकार की समर्थक थी. तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति गेराल्ड फोर्ड का प्रशासन आपातकाल के दौरान भी भारत के साथ स्थायी और सरल संबंध बनाए रखना चाहता था. अमेरिका के हिसाब से आपातकाल भारत का आंतरिक मामला था.
हालांकि, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लगातार अमेरिका के दबाव में न आने के कारण सीआईए ने बाद में भारत को अस्थिर करने की कोशिश की. साल 1976 के अंत तक अमेरिकी प्रशासन ने भारत को मिलने वाला कर्ज रोक दिया. सीआईए और इंदिरा गांधी के बीच टशन का नतीजा रहा कि रातोंरात अमेरिका के सुर बदल गए और वह भारत को एक पुलिस स्टेट बताने लगा.
नई सरकार बनने पर सब पलट गए
इन सबके बावजूद आश्चर्यजनक रूप से दुनिया के तमाम देशों की राष्ट्रीय राजधानियों ने भारत की नई संवैधानिक निरंकुशता को स्वीकार कर लिया था. हालांकि, 1977 में जब जनता पार्टी की अगुवाई वाली गठबंधन सरकार बनी तो इन सभी देशों ने अपनी स्थिति बदल ली. भारत में अमेरिका के नए राजदूत रॉबर्ट गोहीन ने मोरारजी देसाई की सरकार के साथ काम करने के अवसर का स्वागत किया. हालांकि, ऐसा माना गया कि सोवियत संघ के लिए तब हालात बहुत आसान नहीं रह गए थे. ऐसे में सोवियत संघ के नेताओं ने भी अपना रुख बदल लिया और वहां के एक संपादकीय में लिखा गया कि इंदिरा गांधी ने अपनी शक्तियों का हद से ज्यादा इस्तेमाल किया है. वहीं, ब्रिटिश सरकार का भी रुख बदला और वह एलके आडवाणी जैसे प्रगतिशील नेताओं पर फोकस करने लगा था.
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